...(पूर्व में यह लेख दो भागों में प्रकाशित हुआ था,,पाठकों का आग्रह था कि इसे एक ही जगह उपलब्ध कराएं ,जिसे लय बनी रहे...अतः दोनो भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ)
****** कृष्ण का वचन*****
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घोड़ों की रास स्वयं मधुसूधन के हाथों में थी.....मुंह से सफेद फेंन गिराती अश्व टोली इस बात से भलीभांति वाकिफ थी कि ब्रह्मांड के सर्वोत्तम सारथी के हाथ जब भी रथ की रास आती है,,तो समुद्र को भी अपना स्थान त्यागना होता है.......सूर्य की किरणें भी केशव के रथ की गति के आगे नतमस्तक होती हैं....वायु के दूत भी उस रथ की गति से पराजित हो,,स्वयं को लाचार पाते हैं,,,..
सामान्यतः तीव्र गति से रथ भगाने के अभ्यस्त कृष्ण के अश्व आज पहली बार कॄष्ण के शब्दों की ललकार को अपनी पीठ पर चाबुक के स्पर्श के समान महसूस कर रहे हैं... पशु मूक सही,,अपनी भावनाओं को बता पाने में असमर्थ सही,,, किन्तु स्वामी के नेत्रों की भाषा को सहज समझता है....उसके हाथों के स्पर्श के स्पंदन की कहानी जानता है....कृष्ण के हृदय की धौंकनी मानो नगाड़े की गूंज बन अश्वों को संकेत दे रही थी कि आज दौड़ निर्णायक है....आज स्वामी का सम्मान दांव पर है...आज द्रौपदी को दिए वचन को निभाने की घड़ी है....आज कृष्ण के वचन की कीमत तय होनी है....और कृष्ण को निकट से जानने वाले सभी जानते हैं कि कालांतर में अर्जुन को दिए अपने वचन के निर्वाह हेतु,,,प्रकृति के सिद्धान्त के विपरीत जाकर भी वासुदेव ने सूर्य पर ग्रहण तक लगाया है...और आज प्रश्न एक स्त्री की अस्मिता का है....उसके अभिमान का है...
द्रौपदी के भेजे दूत से कल रात्रि ही कृष्ण को कुरु सभा मे होने वाले चौसर के खेल का संकेत मिल चुका है....और संदेश प्राप्त होते ही कृष्ण का मन अनहोनियों की आशंका से उन्हें चौकन्ना कर चुका है....बिना एक पल गंवाएं तब से कृष्ण कुरु सभा पहुंचने को छटपटा उठे हैं,,रात्रि में ही उन्होंने रथ को हस्तिनापुर के मार्ग पर डाल दिया है...
कृष्ण के होठों की ललकार ने जैसे पीठ पर पुनः चाबुक की चोट की हो....जानवर ने स्वामी के हृदय की वेदना को महसूस किया,और अपना सर्वस्व देकर भी आज ऋणमुक्त होने का संकल्प लिया...घोड़ों के पैरों में ज्यों बिजली कौंधती हो....पदचापों की गड़गड़ाहट कुरु साम्राज्य के समाप्ति की घोषणा में मानो ,,विजयी ढोल नाद की भांति तांडव करती हो....
इंद्रप्रस्थ में पांडवों के समारोह में अपमानित दुर्योधन के नेत्रों की ज्वाला ,भविष्य में क्या परिणाम प्रस्तुत कर सकती है,,ये अंदाजा लगाना कृष्ण के लिए कोई बड़ा भेद नही था.....राजा युधिष्ठर चौसर के जुए के लिए हामी भर देंगे,, ये विश्वास कर पाना कठिन था.....किन्तु कहते हैं न कि "प्रभु जाको दारुण दुख दीना,,,ताकि मति पहले हर लीना".......युधिष्ठर तो अपना विवेक यह प्रस्ताव स्वीकार करते ही त्याग चुके हैं......किन्तु दुर्योधन के पास तो कभी विवेक रहा ही नही है...और अपमान की आग में झुलसता हुआ विवेकहीन दुर्योधन ,,,,अपने बल के अहंकार व पांडवों को लज्जित करने की अपनी जिद में मानवता के समस्त नियम बिसरा सकता है ,,इसमे कृष्ण को कोई संदेह नही...
रोहिणी नक्षत्र के अधिपति चंद्रदेव ने ,,मनुष्य लीला करते अपने स्वामी का पथ प्रदर्शन करने हेतु स्वयं आगे बढ़कर आज अपनी निशा यात्रा का संचालन किया...अचानक से जंगल की शांति को भंग करते हुए ,,मयूरों ने शोर मचाना आरम्भ कर दिया...अपने मार्ग से गुजरने वाले कृष्ण के घोड़ों की पदचाप ,कोसों दूर राह मे रात्री विश्राम करते नीले नागान्तकों के लिए,,, माथे पर मोर मुकुट के रूप में ब्रह्मांड का ताज धारण करने वाले चक्रवर्ती के आगमन की घोषणा है....ऐसा चक्रधारी जिसके मोरमुकुट के आगे इन्द्र का सिंहासन तुच्छ जान पड़ता है...जिसके गले मे पड़ी मोती की माला का एक एकलौता मोती ही,,कुबेर के खजाने को लज्जित करने में सक्षम है....और जिसके पीताम्बर की आभा स्वर्ग की अप्सराओं के वैभव तक को क्षीण कर देती है......
कृष्ण के ललाट पर तनाव विद्युत तरंगों के समान रह रह कर चिंगारियां में परिवर्तित हो रहा है...प्रकृति इस तनाव का भार झेलने की अभ्यस्त नही है....तनाव की रेखा तो केशव के ललाट पर तब नही उभरी,,जब कालिया नाग का मानमर्दन उन्होंने किया...इन्द्र की सत्ता को चुनौती देते हुए गोवर्धन उठा लेने वाले कृष्ण के अधरों पर तब भी स्मित ही था..फिर आज ये अनहोनी क्यों?? इस तनाव का भार वहन करने के लिए शेषनाग ने अपने फन पर टिकी वसुंधरा को व्यवस्थित किया....वाराह ने अपने नुकीले खुरों पर अपना आधिपत्य पुनः जांचा....निकट भविष्य में ब्रह्मांड को अचंभित कर देने वाली कोई घटना अपनी रूपरेखा रच रही है,,इसका आभास धरती के इन दोनो भारवाहकों को सहज ही हो गया है...
अश्वों के खुरों के कोने लगातार दौड़ते रहने से अब रक्ताभ होने लगे हैं,,किन्तु उनकी गति में कोई स्थिलता नही दिखाई पड़ती....कृष्ण के हृदय की ज्वाला,, स्वयं अश्वों के नेत्रों से रक्तपुंज के रूप में टपकने को आतुर है...नीले वन पक्षी कृष्ण की देह के ताप से विचलित हो रहे हैं... उनके फड़फड़ाते पंख रात्रि के घने वन में अजीब सा भयभीत कर देने वाला शोर उत्पन कर रहे हैं....नीले मयूरों का रात्रि में जागना शुभ संकेत नही है...अष्ठम कालरात्रि के अधीष्ट ,,,नीले रंग की आभा वाले सांवले कृष्ण और नीले नागान्तकों का समवेत कोप मानो आज कुरुवंश पर लगने वाले ग्रहण का संकेत है...
प्रातः की पहली किरण के साथ ही कृष्ण ने हस्तिनापुर की सीमा का स्पर्श कर लिया....
कुरु सभा मे लगती एक एक बाजी ,,सभ्य समाज के मुंह पर एक एक करारे तमाचे के समान थी....ईर्ष्या जब जब अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती है ,,तब तब मनुष्य के भीतर बसा जानवर बाहर आने लगता है....गिरने की कोई सीमा नही होती...आप महानता का ,,,सहृदय होने का,,सभ्य होने का एक पैमाना तय कर सकते हैं,,किन्तु मनुष्य की नीचता को मापने के कोई पैमाना नही होता....इसकी कोई सीमा नही होती....बड़े भाई की जिस स्त्री से अपनी माता के समान व्यवहार रखना चाहिए,,उस पांचाली को भरी सभा मे निर्वस्त्र करने का आदेश देने में दुर्योधन को किंचित संकोच नही हुआ...
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अपने भवन में कृष्ण की राह देखती द्रौपदी को ज्योंही प्रतिहारी द्वारा उसे चौसर में हार जाने की सूचना प्राप्त हुई,,उसका हृदय एक अनहोनी आशंका से ग्रसित हो गया...कृष्ण की अभी कोई सूचना नही पहुंची,, पता नही कृष्ण तक द्रौपदी का संदेश ही पहुंचा या नही....और द्वारका से यहां पहुंचने में कितना समय लगता है,,,इन प्रश्नों के उत्तर द्रौपदी के पास नही थे..
बेबसी ने अश्रुओं का रूप ले लिया...किन्तु पलकों के कोनों पर जमा पानी,,,आत्मसमान का रूप ले,,स्वयं से विद्रोह कर उठा...इतिहास साक्षी है कि किसी स्त्री के नेत्रों से जब भी बेबसी के अश्रु बहे हैं,, बड़े बड़े साम्राज्य इसकी भेंट चढ़े हैं..अजेय रावण अपनी लंका सहित इस ज्वाला में होम हुआ है...सती के देह त्याग का परिणाम सम्पूर्ण विश्व को नाश के कगार पर ले गया था...देवकी के नेत्रों की गंगा में डूबकर मथुरा का कंस साम्राज्य खंड खंड बिखर चुका है,.. अहिल्या के अपमान का परिणाम इंद्र को चुकाना पड़ा....नियति क्या रचे बैठी है ये कृष्ण के सिवा कोई नही जानता...अपने अनुजों सहित अपनी स्त्री को जुए के दांव में हार जाने वाले युधिष्ठिर को इतिहास भले ही धर्मराज के रूप में याद रखे,,किन्तु द्रौपदी की दृष्टि में आज युधिष्ठिर का स्थान बहुत निम्न हो गया है..
दुर्योधन के आदेश पर दुशासन पांचाली को केशों से घसीटकर ,,कुरु सभा को अपनी बलिष्ट भुजाओं का परिचय दे चुका है..अपमान से छटपटाई निरीह स्त्री के वस्त्रों का एक छोर अपने पैरों से दबाए ,एक वीर अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहा है.... संसार मे वीरता के नया अध्याय लिखा जा रहा है,,,इतिहास पौरुषत्व की नवीन व्याख्या देख रहा है..
आरंभ से ही स्त्री को सांवन्तवादी दृष्टि से देखने की मनोवृत्ति रही है...संसार अनेकों ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है...स्त्री उपभोग की वस्तु है ,,इस कुविचार से बड़े से बड़े चरित्र भी अछूते नही रहे...संसार का ये अटल सिद्धांत है कि भले ही पुरुष कितनी ही स्त्रियों का भोग करे,,किन्तु स्त्री एक से अधिक पुरुष को नही वर सकती...द्रौपदी ने पुरुषों की इस वर्चस्वता को चुनौती दी है..वह पांच वरों को धारण करने वाली पांचाली है..और पुरुष प्रधान समाज मे ऐसा दुस्साहस करने का दंड स्त्री को अपना सम्मान देकर चुकाना चाहिए,,,जाने अनजाने इस विचार के पक्षधर इस सभा मे बैठे सभी वीर हैं...आदर्शवाद की व्याख्या करते अपने अनेक नायकों को इतिहास ने हजारों बार मुंह के बल गिरते देखा है.....सभा मे गंगापुत्र भीष्म,,आचार्य द्रोण,,,महाबली कर्ण,,, नीतिपुरुष विदुर,,कृपाचार्य सहित उस कालखंड के उत्तम पुरुष विद्यमान है...सबकी अपनी अपनी विवशताएँ हो सकना संभव हैं,,सबके संस्कार भिन्न होना संभव हैं,,,.किन्तु सबके भीतर एक विचार समान रूप से विद्यमान है,,,जो सभी को एक सूत्र से बांधता है,,वो है मिथ्या पुरुषवाद..सभी के हृदय में एक टीस सदा से उन्हें सालती आयी है कि द्रौपदी ने पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देने का साहस किया है,,और उसे इसका दंड मिलना चाहिए..
जिस क्षण भर में आपकी महानता का पैमाना तय होता है,,जो क्षण आपको मिथ्या पुरुषवाद के अहंकार की भावना से काटकर पुरुषों में उत्तम स्थान प्रदान करता है,,,जिस क्षण आप ब्रह्मांड में एक नया आदर्श प्रस्तुत कर ,स्वयं को एक वास्तविक नायक घोषित करते हैं,, वह यही एक क्षण मात्र होता है....जब जबर के जुल्म के विरोध में कोई दर्शक दीर्घा से आगे निकल अधर्म को अधर्म कहने का साहस करता है..जब कोई सबल का विरोध कर निर्बल का सहायक बनता है,,,और वास्तविक नायक कहलाता है..और इसी एक क्षण में संसार के श्रेष्ठ नायक किरदार अपना कर्तव्य निभाने में चूक गए..वे दुर्योधन का विरोध करने से चूक गए...एक स्त्री की मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को लांघने का दुस्साहस कर बैठे..आदर्शवाद की मर्यादा को तार तार करने हेतु दुशासन के हाथ द्रौपदी के वस्त्रों की ओर बड़े... सभा द्रौपदी को उस अवस्था मे देखने का मोह नही त्याग सकी,, जिस रूप में स्त्री को उसका पुत्र व स्वामी ही देख पाए हैं..राजाओं में श्रेष्ठ स्थान रखने वाले राजा द्रुपद की राजकन्या,,,,संसार के श्रेष्ठ महारथियों की अर्धांगिनी,,,आज अपनी अस्मिता की रक्षा में असमर्थ है.... जिस पुरुषप्रधान समाज ने स्त्री के लिए अस्मिता के मापदंड तय किया हैं,,,उसी अस्मिता के पहरुए आज उसके सम्मान को निर्वस्त्र करने पर आमादा हैं....द्रौपदी को आज ज्ञात हुआ कि संसार मे स्त्रियों का एक ही स्थान है,,,एक ही गति है.....भले ही उसका जन्म किसी राजपरिवार में हो अथवा किसी निम्न कुल में .....किन्तु स्त्री की सदा से एक ही जाति होती आयी है,,वह जाति स्त्री होना है,,और इससे मुक्ति नही पाई जा सकती,,,चाहे उसका जन्म वैदेही के रूप में हो अथवा द्रौपदी के रूप में....
किन्तु अनहोनियों होती हैं....असंभव संभव होता है,,,,कश्ती उस भंवर से भी निकलती है,,जिस भंवर से निकलने की आशा स्वयं मल्लाह को भी नही होती....ईश्वर ऐसी रचनाएं करता है....देवता ऐसा संभव करते हैं..हर ओर से निराश होकर भी अंत मे हृदय में एक दीपक आशा की एक क्षीण सी किरण जलाए रखता है,,,वह है कृष्ण का नाम....इस नाम का आधार द्रौपदी ने कभी नही त्यागा....नही,, कृष्ण हैं तो द्रौपदी का सम्मान जीवित है...भक्त है तो भगवान है....भक्त सदा भक्त है.....स्वयं को प्रत्यक्ष भगवान को करना होता है...अपनी शक्ति का परिचय देना होता है....आज द्रौपदी की नही,,एक भक्त की अस्मिता दांव पर है मधुसूदन.....आज तुम्हारा अस्तित्व दांव पर है गोवर्धन....आज तुम्हारे भक्त प्रेम की परीक्षा है केशव......
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी,, जय नाथ नारायन वासुदेव.....इस मंत्र का जाप सदा पांचाली ने किया है....कृष्ण पर उसकी अटूट श्रद्धा रही है....छद्म वीरों के इस संसार मे केशव का नाम ही एक अबला का सहारा बनता रहा है,,बनता रहेगा..हे नाथ,,रक्षा...रक्षा....
द्रौपदी के वस्त्र का एक सिरा अपने पैरों से दबाए,दुशाशन के हाथ उसके शरीर से वस्त्र खींचने को बढ़े...वस्त्र का दूसरा सिरा थामे पांचाली,,अपने नेत्रों को भींचे,,हृदय में गोविंद गोविंद पुकार रही है..यह भक्त की वह करुणामयी पुकार है,,जिस पर शेषनाग की शैय्या करते ईश्वर की तंद्रा भी टूटती है...समाधि में बैठे शिव भी जिस करुण पुकार के कारण विचलित हो उठते हैं.....हृदय से उठी यह उस अखंड विश्वास की पुकार है,,जिसका आधार लेकर सृष्टि कायम है..जिस विश्वास पर ब्रह्मांड की गतियां कायम हैं..जो विश्वास मनुष्य को अपने आराध्य के साक्षात दर्शन कराता है...
दुःशाशन ने आगे बढ़कर द्रौपदी के वस्त्रों को उसके शरीर से खींचना आरम्भ किया....पांडव लज्जा से सिर झुकाए बैठे हैं...बाकी सभा नीचता से अपनी गिद्ध दृष्टि पांचाली की देह पर लगाए बैठी है..दुर्योधन ने उत्तेजित होकर अपनी जंघा पर हाथ मारा....दुशासन ने द्रौपदी के बाहरी वस्त्र को खींचकर उसके शरीर से अलग निकाल फेंका...सभा सीत्कार से भर उठी..वीर दुशाशन के हाथ अधोवस्त्रों की ओर बढ़े....द्रौपदी का मन परमहंसों की उस अवस्था तक पहुंच गया है,,जहां उसके हृदय में कृष्ण के सिवा कुछ दृश्य नही,,,कानो में केशव केशव के सिवा कोई ध्वनि नही,,जिव्हा पर हे गोविंद हे गोविंद के सिवा कोई पुकार नही.....वस्त्रों से द्रौपदी का ध्यान हट चुका है,,दोनो हाथ जोड़े भक्त बस प्रभु का आह्वान कर रहा है..
दुशासन ने द्रौपदी के अंगवस्त्र पर हाथ बढ़ाया ही था कि उसी क्षण सम्पूर्ण कुरुसभा एक प्रचंड ध्वनि से गूंज उठी..सम्पूर्ण ब्रह्मांड को बींधती इस ध्वनि की तीव्रता ने मानो सब कुछ शून्य कर दिया हो..कुरुमहल की धरती प्रलय के कंपन से थरथरा उठी...सभा मे उपस्थित वीरों का तेज बुझ गया...दुशाशन सहित अनेकों महारथी अपने कर्णों पर हाथ धरे चेतनाशून्य हो उठे..धरती डगमगा उठी....शेषनाग ने अपने फन को झटक कर होने वाली घटना के लिए स्वयं को सचेत किया,,,शिव ने डगमगाते कैलाश को पुनः अपने प्रभाव से स्थिर किया,....सर्वप्रथम कुन्तीनन्दन अर्जुन ने इस ध्वनि को पहचाना....उस ध्वनि को ,जिससे संसार का हर महारथी परिचित है ....जिस ध्वनि के आगे ब्रह्मांड शीश नवाता है..वो ध्वनि जो संसार मे विरलतम है...जिस ध्वनि की गूंज वीरों का तेज हर उन्हें नपुंसक बनाने का सामर्थ्य रखती है....ये कृष्ण के पांचजन्य की गूंज है....इस शंख को वासुदेव धारण करते हैं..ये द्वारिकाधीश के रूप में ब्रह्मांड के स्वामी के आगमन की घोषणा है.....ये उस चक्रपाणी के आगमन का संदेश है,,जिसकी वीरता के आगे संसार नतमस्तक है...
वासुदेव महल प्रांगण में प्रवेश कर चुके हैं....प्रचंड ज्वाला में धधकते कृष्ण ने अपने आगमन की हुंकार करी...पांचजन्य संसार का सर्वश्रेष्ठ ध्वनि शंख है,,जिसे संसार का सर्वोत्तम महारथी धारण करता है..चलते रथ से कूद कर कृष्ण द्युत सभा की ओर भागे...जब तक कुरुसभा पांचजन्य के प्रभाव से स्थिर होती,,सम्पूर्ण कुरुमहल कृष्ण के तेज से स्तम्भित हो उठा..क्षण भर में पासा पलट गया....भगवान ने धरती की गति को मानो स्थिर कर दिया हो....कृष्ण ने अपना पीतांबर द्रौपदी के कांधे पर फैला दिया...ये वो पीताम्बर है जो समूर्ण आकाश को ढकने का सामर्थ्य रखता है..आग्नेय दृष्टि से कृष्ण ने कुरुसभा को मानो चुनौती दी हो...द्रौपदी के ओढे पीताम्बर को स्पर्श करने की चुनौती..
कुरुसभा के समस्त वीर योद्धा जानते हैं कि द्रौपदी के शरीर पर पड़े पीताम्बर को स्पर्श करने का अर्थ कृष्ण के सुदर्शन चक्र को ललकारना है..वे यादवों के अधिपति हैं....इस सुदर्शन के पीछे संसार का नाश करने में सक्षम मृत देहों का अंबार खड़ा करने के बलराम के हल की फाल से सब परिचित हैं..यादव श्रेष्ठ सात्यकि की बाणों की गति संसार जरासंध युद्ध मे देख चुका है,,,उद्दव के धनुष की टंकार किसी भी साम्राज्य का विध्वसंश करने में सक्षम है....ये पीताम्बर नही,,यादवों का आत्मसम्मान है...यह कृष्ण का धर्म है...और संसार मे किस महारथी का सामर्थ्य है जो कृष्ण के धर्म को चुनौती दे सके..
सभा निर्वीर्य देखती रह गयी,,,भगवान भक्त का हाथ थामे धीमे से वहां से प्रस्थान कर गए....
****** कृष्ण का वचन*****
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घोड़ों की रास स्वयं मधुसूधन के हाथों में थी.....मुंह से सफेद फेंन गिराती अश्व टोली इस बात से भलीभांति वाकिफ थी कि ब्रह्मांड के सर्वोत्तम सारथी के हाथ जब भी रथ की रास आती है,,तो समुद्र को भी अपना स्थान त्यागना होता है.......सूर्य की किरणें भी केशव के रथ की गति के आगे नतमस्तक होती हैं....वायु के दूत भी उस रथ की गति से पराजित हो,,स्वयं को लाचार पाते हैं,,,..
सामान्यतः तीव्र गति से रथ भगाने के अभ्यस्त कृष्ण के अश्व आज पहली बार कॄष्ण के शब्दों की ललकार को अपनी पीठ पर चाबुक के स्पर्श के समान महसूस कर रहे हैं... पशु मूक सही,,अपनी भावनाओं को बता पाने में असमर्थ सही,,, किन्तु स्वामी के नेत्रों की भाषा को सहज समझता है....उसके हाथों के स्पर्श के स्पंदन की कहानी जानता है....कृष्ण के हृदय की धौंकनी मानो नगाड़े की गूंज बन अश्वों को संकेत दे रही थी कि आज दौड़ निर्णायक है....आज स्वामी का सम्मान दांव पर है...आज द्रौपदी को दिए वचन को निभाने की घड़ी है....आज कृष्ण के वचन की कीमत तय होनी है....और कृष्ण को निकट से जानने वाले सभी जानते हैं कि कालांतर में अर्जुन को दिए अपने वचन के निर्वाह हेतु,,,प्रकृति के सिद्धान्त के विपरीत जाकर भी वासुदेव ने सूर्य पर ग्रहण तक लगाया है...और आज प्रश्न एक स्त्री की अस्मिता का है....उसके अभिमान का है...
द्रौपदी के भेजे दूत से कल रात्रि ही कृष्ण को कुरु सभा मे होने वाले चौसर के खेल का संकेत मिल चुका है....और संदेश प्राप्त होते ही कृष्ण का मन अनहोनियों की आशंका से उन्हें चौकन्ना कर चुका है....बिना एक पल गंवाएं तब से कृष्ण कुरु सभा पहुंचने को छटपटा उठे हैं,,रात्रि में ही उन्होंने रथ को हस्तिनापुर के मार्ग पर डाल दिया है...
कृष्ण के होठों की ललकार ने जैसे पीठ पर पुनः चाबुक की चोट की हो....जानवर ने स्वामी के हृदय की वेदना को महसूस किया,और अपना सर्वस्व देकर भी आज ऋणमुक्त होने का संकल्प लिया...घोड़ों के पैरों में ज्यों बिजली कौंधती हो....पदचापों की गड़गड़ाहट कुरु साम्राज्य के समाप्ति की घोषणा में मानो ,,विजयी ढोल नाद की भांति तांडव करती हो....
इंद्रप्रस्थ में पांडवों के समारोह में अपमानित दुर्योधन के नेत्रों की ज्वाला ,भविष्य में क्या परिणाम प्रस्तुत कर सकती है,,ये अंदाजा लगाना कृष्ण के लिए कोई बड़ा भेद नही था.....राजा युधिष्ठर चौसर के जुए के लिए हामी भर देंगे,, ये विश्वास कर पाना कठिन था.....किन्तु कहते हैं न कि "प्रभु जाको दारुण दुख दीना,,,ताकि मति पहले हर लीना".......युधिष्ठर तो अपना विवेक यह प्रस्ताव स्वीकार करते ही त्याग चुके हैं......किन्तु दुर्योधन के पास तो कभी विवेक रहा ही नही है...और अपमान की आग में झुलसता हुआ विवेकहीन दुर्योधन ,,,,अपने बल के अहंकार व पांडवों को लज्जित करने की अपनी जिद में मानवता के समस्त नियम बिसरा सकता है ,,इसमे कृष्ण को कोई संदेह नही...
रोहिणी नक्षत्र के अधिपति चंद्रदेव ने ,,मनुष्य लीला करते अपने स्वामी का पथ प्रदर्शन करने हेतु स्वयं आगे बढ़कर आज अपनी निशा यात्रा का संचालन किया...अचानक से जंगल की शांति को भंग करते हुए ,,मयूरों ने शोर मचाना आरम्भ कर दिया...अपने मार्ग से गुजरने वाले कृष्ण के घोड़ों की पदचाप ,कोसों दूर राह मे रात्री विश्राम करते नीले नागान्तकों के लिए,,, माथे पर मोर मुकुट के रूप में ब्रह्मांड का ताज धारण करने वाले चक्रवर्ती के आगमन की घोषणा है....ऐसा चक्रधारी जिसके मोरमुकुट के आगे इन्द्र का सिंहासन तुच्छ जान पड़ता है...जिसके गले मे पड़ी मोती की माला का एक एकलौता मोती ही,,कुबेर के खजाने को लज्जित करने में सक्षम है....और जिसके पीताम्बर की आभा स्वर्ग की अप्सराओं के वैभव तक को क्षीण कर देती है......
कृष्ण के ललाट पर तनाव विद्युत तरंगों के समान रह रह कर चिंगारियां में परिवर्तित हो रहा है...प्रकृति इस तनाव का भार झेलने की अभ्यस्त नही है....तनाव की रेखा तो केशव के ललाट पर तब नही उभरी,,जब कालिया नाग का मानमर्दन उन्होंने किया...इन्द्र की सत्ता को चुनौती देते हुए गोवर्धन उठा लेने वाले कृष्ण के अधरों पर तब भी स्मित ही था..फिर आज ये अनहोनी क्यों?? इस तनाव का भार वहन करने के लिए शेषनाग ने अपने फन पर टिकी वसुंधरा को व्यवस्थित किया....वाराह ने अपने नुकीले खुरों पर अपना आधिपत्य पुनः जांचा....निकट भविष्य में ब्रह्मांड को अचंभित कर देने वाली कोई घटना अपनी रूपरेखा रच रही है,,इसका आभास धरती के इन दोनो भारवाहकों को सहज ही हो गया है...
अश्वों के खुरों के कोने लगातार दौड़ते रहने से अब रक्ताभ होने लगे हैं,,किन्तु उनकी गति में कोई स्थिलता नही दिखाई पड़ती....कृष्ण के हृदय की ज्वाला,, स्वयं अश्वों के नेत्रों से रक्तपुंज के रूप में टपकने को आतुर है...नीले वन पक्षी कृष्ण की देह के ताप से विचलित हो रहे हैं... उनके फड़फड़ाते पंख रात्रि के घने वन में अजीब सा भयभीत कर देने वाला शोर उत्पन कर रहे हैं....नीले मयूरों का रात्रि में जागना शुभ संकेत नही है...अष्ठम कालरात्रि के अधीष्ट ,,,नीले रंग की आभा वाले सांवले कृष्ण और नीले नागान्तकों का समवेत कोप मानो आज कुरुवंश पर लगने वाले ग्रहण का संकेत है...
प्रातः की पहली किरण के साथ ही कृष्ण ने हस्तिनापुर की सीमा का स्पर्श कर लिया....
कुरु सभा मे लगती एक एक बाजी ,,सभ्य समाज के मुंह पर एक एक करारे तमाचे के समान थी....ईर्ष्या जब जब अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती है ,,तब तब मनुष्य के भीतर बसा जानवर बाहर आने लगता है....गिरने की कोई सीमा नही होती...आप महानता का ,,,सहृदय होने का,,सभ्य होने का एक पैमाना तय कर सकते हैं,,किन्तु मनुष्य की नीचता को मापने के कोई पैमाना नही होता....इसकी कोई सीमा नही होती....बड़े भाई की जिस स्त्री से अपनी माता के समान व्यवहार रखना चाहिए,,उस पांचाली को भरी सभा मे निर्वस्त्र करने का आदेश देने में दुर्योधन को किंचित संकोच नही हुआ...
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अपने भवन में कृष्ण की राह देखती द्रौपदी को ज्योंही प्रतिहारी द्वारा उसे चौसर में हार जाने की सूचना प्राप्त हुई,,उसका हृदय एक अनहोनी आशंका से ग्रसित हो गया...कृष्ण की अभी कोई सूचना नही पहुंची,, पता नही कृष्ण तक द्रौपदी का संदेश ही पहुंचा या नही....और द्वारका से यहां पहुंचने में कितना समय लगता है,,,इन प्रश्नों के उत्तर द्रौपदी के पास नही थे..
बेबसी ने अश्रुओं का रूप ले लिया...किन्तु पलकों के कोनों पर जमा पानी,,,आत्मसमान का रूप ले,,स्वयं से विद्रोह कर उठा...इतिहास साक्षी है कि किसी स्त्री के नेत्रों से जब भी बेबसी के अश्रु बहे हैं,, बड़े बड़े साम्राज्य इसकी भेंट चढ़े हैं..अजेय रावण अपनी लंका सहित इस ज्वाला में होम हुआ है...सती के देह त्याग का परिणाम सम्पूर्ण विश्व को नाश के कगार पर ले गया था...देवकी के नेत्रों की गंगा में डूबकर मथुरा का कंस साम्राज्य खंड खंड बिखर चुका है,.. अहिल्या के अपमान का परिणाम इंद्र को चुकाना पड़ा....नियति क्या रचे बैठी है ये कृष्ण के सिवा कोई नही जानता...अपने अनुजों सहित अपनी स्त्री को जुए के दांव में हार जाने वाले युधिष्ठिर को इतिहास भले ही धर्मराज के रूप में याद रखे,,किन्तु द्रौपदी की दृष्टि में आज युधिष्ठिर का स्थान बहुत निम्न हो गया है..
दुर्योधन के आदेश पर दुशासन पांचाली को केशों से घसीटकर ,,कुरु सभा को अपनी बलिष्ट भुजाओं का परिचय दे चुका है..अपमान से छटपटाई निरीह स्त्री के वस्त्रों का एक छोर अपने पैरों से दबाए ,एक वीर अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहा है.... संसार मे वीरता के नया अध्याय लिखा जा रहा है,,,इतिहास पौरुषत्व की नवीन व्याख्या देख रहा है..
आरंभ से ही स्त्री को सांवन्तवादी दृष्टि से देखने की मनोवृत्ति रही है...संसार अनेकों ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है...स्त्री उपभोग की वस्तु है ,,इस कुविचार से बड़े से बड़े चरित्र भी अछूते नही रहे...संसार का ये अटल सिद्धांत है कि भले ही पुरुष कितनी ही स्त्रियों का भोग करे,,किन्तु स्त्री एक से अधिक पुरुष को नही वर सकती...द्रौपदी ने पुरुषों की इस वर्चस्वता को चुनौती दी है..वह पांच वरों को धारण करने वाली पांचाली है..और पुरुष प्रधान समाज मे ऐसा दुस्साहस करने का दंड स्त्री को अपना सम्मान देकर चुकाना चाहिए,,,जाने अनजाने इस विचार के पक्षधर इस सभा मे बैठे सभी वीर हैं...आदर्शवाद की व्याख्या करते अपने अनेक नायकों को इतिहास ने हजारों बार मुंह के बल गिरते देखा है.....सभा मे गंगापुत्र भीष्म,,आचार्य द्रोण,,,महाबली कर्ण,,, नीतिपुरुष विदुर,,कृपाचार्य सहित उस कालखंड के उत्तम पुरुष विद्यमान है...सबकी अपनी अपनी विवशताएँ हो सकना संभव हैं,,सबके संस्कार भिन्न होना संभव हैं,,,.किन्तु सबके भीतर एक विचार समान रूप से विद्यमान है,,,जो सभी को एक सूत्र से बांधता है,,वो है मिथ्या पुरुषवाद..सभी के हृदय में एक टीस सदा से उन्हें सालती आयी है कि द्रौपदी ने पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देने का साहस किया है,,और उसे इसका दंड मिलना चाहिए..
जिस क्षण भर में आपकी महानता का पैमाना तय होता है,,जो क्षण आपको मिथ्या पुरुषवाद के अहंकार की भावना से काटकर पुरुषों में उत्तम स्थान प्रदान करता है,,,जिस क्षण आप ब्रह्मांड में एक नया आदर्श प्रस्तुत कर ,स्वयं को एक वास्तविक नायक घोषित करते हैं,, वह यही एक क्षण मात्र होता है....जब जबर के जुल्म के विरोध में कोई दर्शक दीर्घा से आगे निकल अधर्म को अधर्म कहने का साहस करता है..जब कोई सबल का विरोध कर निर्बल का सहायक बनता है,,,और वास्तविक नायक कहलाता है..और इसी एक क्षण में संसार के श्रेष्ठ नायक किरदार अपना कर्तव्य निभाने में चूक गए..वे दुर्योधन का विरोध करने से चूक गए...एक स्त्री की मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को लांघने का दुस्साहस कर बैठे..आदर्शवाद की मर्यादा को तार तार करने हेतु दुशासन के हाथ द्रौपदी के वस्त्रों की ओर बड़े... सभा द्रौपदी को उस अवस्था मे देखने का मोह नही त्याग सकी,, जिस रूप में स्त्री को उसका पुत्र व स्वामी ही देख पाए हैं..राजाओं में श्रेष्ठ स्थान रखने वाले राजा द्रुपद की राजकन्या,,,,संसार के श्रेष्ठ महारथियों की अर्धांगिनी,,,आज अपनी अस्मिता की रक्षा में असमर्थ है.... जिस पुरुषप्रधान समाज ने स्त्री के लिए अस्मिता के मापदंड तय किया हैं,,,उसी अस्मिता के पहरुए आज उसके सम्मान को निर्वस्त्र करने पर आमादा हैं....द्रौपदी को आज ज्ञात हुआ कि संसार मे स्त्रियों का एक ही स्थान है,,,एक ही गति है.....भले ही उसका जन्म किसी राजपरिवार में हो अथवा किसी निम्न कुल में .....किन्तु स्त्री की सदा से एक ही जाति होती आयी है,,वह जाति स्त्री होना है,,और इससे मुक्ति नही पाई जा सकती,,,चाहे उसका जन्म वैदेही के रूप में हो अथवा द्रौपदी के रूप में....
किन्तु अनहोनियों होती हैं....असंभव संभव होता है,,,,कश्ती उस भंवर से भी निकलती है,,जिस भंवर से निकलने की आशा स्वयं मल्लाह को भी नही होती....ईश्वर ऐसी रचनाएं करता है....देवता ऐसा संभव करते हैं..हर ओर से निराश होकर भी अंत मे हृदय में एक दीपक आशा की एक क्षीण सी किरण जलाए रखता है,,,वह है कृष्ण का नाम....इस नाम का आधार द्रौपदी ने कभी नही त्यागा....नही,, कृष्ण हैं तो द्रौपदी का सम्मान जीवित है...भक्त है तो भगवान है....भक्त सदा भक्त है.....स्वयं को प्रत्यक्ष भगवान को करना होता है...अपनी शक्ति का परिचय देना होता है....आज द्रौपदी की नही,,एक भक्त की अस्मिता दांव पर है मधुसूदन.....आज तुम्हारा अस्तित्व दांव पर है गोवर्धन....आज तुम्हारे भक्त प्रेम की परीक्षा है केशव......
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी,, जय नाथ नारायन वासुदेव.....इस मंत्र का जाप सदा पांचाली ने किया है....कृष्ण पर उसकी अटूट श्रद्धा रही है....छद्म वीरों के इस संसार मे केशव का नाम ही एक अबला का सहारा बनता रहा है,,बनता रहेगा..हे नाथ,,रक्षा...रक्षा....
द्रौपदी के वस्त्र का एक सिरा अपने पैरों से दबाए,दुशाशन के हाथ उसके शरीर से वस्त्र खींचने को बढ़े...वस्त्र का दूसरा सिरा थामे पांचाली,,अपने नेत्रों को भींचे,,हृदय में गोविंद गोविंद पुकार रही है..यह भक्त की वह करुणामयी पुकार है,,जिस पर शेषनाग की शैय्या करते ईश्वर की तंद्रा भी टूटती है...समाधि में बैठे शिव भी जिस करुण पुकार के कारण विचलित हो उठते हैं.....हृदय से उठी यह उस अखंड विश्वास की पुकार है,,जिसका आधार लेकर सृष्टि कायम है..जिस विश्वास पर ब्रह्मांड की गतियां कायम हैं..जो विश्वास मनुष्य को अपने आराध्य के साक्षात दर्शन कराता है...
दुःशाशन ने आगे बढ़कर द्रौपदी के वस्त्रों को उसके शरीर से खींचना आरम्भ किया....पांडव लज्जा से सिर झुकाए बैठे हैं...बाकी सभा नीचता से अपनी गिद्ध दृष्टि पांचाली की देह पर लगाए बैठी है..दुर्योधन ने उत्तेजित होकर अपनी जंघा पर हाथ मारा....दुशासन ने द्रौपदी के बाहरी वस्त्र को खींचकर उसके शरीर से अलग निकाल फेंका...सभा सीत्कार से भर उठी..वीर दुशाशन के हाथ अधोवस्त्रों की ओर बढ़े....द्रौपदी का मन परमहंसों की उस अवस्था तक पहुंच गया है,,जहां उसके हृदय में कृष्ण के सिवा कुछ दृश्य नही,,,कानो में केशव केशव के सिवा कोई ध्वनि नही,,जिव्हा पर हे गोविंद हे गोविंद के सिवा कोई पुकार नही.....वस्त्रों से द्रौपदी का ध्यान हट चुका है,,दोनो हाथ जोड़े भक्त बस प्रभु का आह्वान कर रहा है..
दुशासन ने द्रौपदी के अंगवस्त्र पर हाथ बढ़ाया ही था कि उसी क्षण सम्पूर्ण कुरुसभा एक प्रचंड ध्वनि से गूंज उठी..सम्पूर्ण ब्रह्मांड को बींधती इस ध्वनि की तीव्रता ने मानो सब कुछ शून्य कर दिया हो..कुरुमहल की धरती प्रलय के कंपन से थरथरा उठी...सभा मे उपस्थित वीरों का तेज बुझ गया...दुशाशन सहित अनेकों महारथी अपने कर्णों पर हाथ धरे चेतनाशून्य हो उठे..धरती डगमगा उठी....शेषनाग ने अपने फन को झटक कर होने वाली घटना के लिए स्वयं को सचेत किया,,,शिव ने डगमगाते कैलाश को पुनः अपने प्रभाव से स्थिर किया,....सर्वप्रथम कुन्तीनन्दन अर्जुन ने इस ध्वनि को पहचाना....उस ध्वनि को ,जिससे संसार का हर महारथी परिचित है ....जिस ध्वनि के आगे ब्रह्मांड शीश नवाता है..वो ध्वनि जो संसार मे विरलतम है...जिस ध्वनि की गूंज वीरों का तेज हर उन्हें नपुंसक बनाने का सामर्थ्य रखती है....ये कृष्ण के पांचजन्य की गूंज है....इस शंख को वासुदेव धारण करते हैं..ये द्वारिकाधीश के रूप में ब्रह्मांड के स्वामी के आगमन की घोषणा है.....ये उस चक्रपाणी के आगमन का संदेश है,,जिसकी वीरता के आगे संसार नतमस्तक है...
वासुदेव महल प्रांगण में प्रवेश कर चुके हैं....प्रचंड ज्वाला में धधकते कृष्ण ने अपने आगमन की हुंकार करी...पांचजन्य संसार का सर्वश्रेष्ठ ध्वनि शंख है,,जिसे संसार का सर्वोत्तम महारथी धारण करता है..चलते रथ से कूद कर कृष्ण द्युत सभा की ओर भागे...जब तक कुरुसभा पांचजन्य के प्रभाव से स्थिर होती,,सम्पूर्ण कुरुमहल कृष्ण के तेज से स्तम्भित हो उठा..क्षण भर में पासा पलट गया....भगवान ने धरती की गति को मानो स्थिर कर दिया हो....कृष्ण ने अपना पीतांबर द्रौपदी के कांधे पर फैला दिया...ये वो पीताम्बर है जो समूर्ण आकाश को ढकने का सामर्थ्य रखता है..आग्नेय दृष्टि से कृष्ण ने कुरुसभा को मानो चुनौती दी हो...द्रौपदी के ओढे पीताम्बर को स्पर्श करने की चुनौती..
कुरुसभा के समस्त वीर योद्धा जानते हैं कि द्रौपदी के शरीर पर पड़े पीताम्बर को स्पर्श करने का अर्थ कृष्ण के सुदर्शन चक्र को ललकारना है..वे यादवों के अधिपति हैं....इस सुदर्शन के पीछे संसार का नाश करने में सक्षम मृत देहों का अंबार खड़ा करने के बलराम के हल की फाल से सब परिचित हैं..यादव श्रेष्ठ सात्यकि की बाणों की गति संसार जरासंध युद्ध मे देख चुका है,,,उद्दव के धनुष की टंकार किसी भी साम्राज्य का विध्वसंश करने में सक्षम है....ये पीताम्बर नही,,यादवों का आत्मसम्मान है...यह कृष्ण का धर्म है...और संसार मे किस महारथी का सामर्थ्य है जो कृष्ण के धर्म को चुनौती दे सके..
सभा निर्वीर्य देखती रह गयी,,,भगवान भक्त का हाथ थामे धीमे से वहां से प्रस्थान कर गए....
गुरुजी प्रणाम, मेरा नाम आशीष श्रोत्रिय है मेरा जन्म 25 अगस्त 1982 को प्रातः 04:45 पर उज्जैन मध्यप्रदेश में हुआ है मेरा जन्म लग्न कर्क है और राशि तुला है मेरी पत्रिका में एक और कि शुभ योग जैसे चतुर्थ में प्रबल गजकेसरी योग व महालक्ष्मी योग है, अर्ध माला योग, लग्न व चतुर्थ का राशि परिवर्तन योग, स्वग्रही सूर्य, निर्माण हुए है तो वही दूसरी और शेषनाग कालसर्प , लग्न का पापकर्तरी योग में आना, राहु का मिथुन राशि बारहवे भाव मे अकेले स्थित होना, राशि स्वामी शुक्र का लग्नस्थ शत्रु राशि कर्क में होना तथा लग्नेश चन्द्र का शत्रु राशि तुला में चतुर्थ में होना, साथ ही बारहवे राहु की पंचम दृष्टि सुख स्थान पर जिसमे गजकेसरी व महालक्ष्मी योग बन रहा है आदि। साथ ही वर्तमान में अकारक ग्रह बुध की महादशा में शुक्र का अंतर चल रहा है, बुध व्ययेश और पराक्रमेश भी है, शनि की दशम दृष्टि राहु पर है।।
जवाब देंहटाएंमंगल चतुर्थ स्थान पर गुरु, चन्द्र के साथ तुला राशि स्थित है।
मेरे जन्म के 9 माह पश्चात मेरी माता की मृत्यु हो गयी, 16 वर्ष की आयु में पिता भी चल बसे, भाईबहन एक भी नही है, शिक्षा में व्यवधान हुआ,शारीरिक दुर्बलता, विचारो में जन्म से ही कामुकता एवं अधिक बोलने से भारी नुकसान होता है, जीवन सदा कर्जे में अथवा अनियंत्रित बेवजह के खर्चो पर या ऐशोआराम की चीजों पर हो ही जाता है, मन स्थिर नही रहता, दो कन्या सन्तान है, आय की स्थिति नोकरी पर टिकी है जो लगती छूटती रहती है, पत्नी का स्वास्थ्य गम्भीर है, सन्तान दुसरो के भरोसे पलती है, आत्महत्या के विचार आते है अथवा घर से कही दूर एकांत में चले जाने के विचार बनते है, जीवनसाथी से गहरे मतभेद है कर्क लग्न है तो आप समझ ही गए होंगे, भावनाएं प्रभल रहती है भावुकता कूट कूट के भरी है बस प्रायः छलक ही जाती है,38 वर्ष की आयु हो चली है कुछ राह कोई हुनर नही मिला या दिख रहा है, बैंको का कर्ज हो चुका है, दोनो आंखे भी कमजोर हो गयी है, बवासीर, व किडनी जैसे कुछ रोग भी चपेट में लिए हुए है।।
क्या आप कुछ सहायता कर सकते है???
आशीष श्रोत्रिय
9009926034
गुरुजी प्रणाम, मेरा नाम आशीष श्रोत्रिय है मेरा जन्म 25 अगस्त 1982 को प्रातः 04:45 पर उज्जैन मध्यप्रदेश में हुआ है मेरा जन्म लग्न कर्क है और राशि तुला है मेरी पत्रिका में एक और कि शुभ योग जैसे चतुर्थ में प्रबल गजकेसरी योग व महालक्ष्मी योग है, अर्ध माला योग, लग्न व चतुर्थ का राशि परिवर्तन योग, स्वग्रही सूर्य, निर्माण हुए है तो वही दूसरी और शेषनाग कालसर्प , लग्न का पापकर्तरी योग में आना, राहु का मिथुन राशि बारहवे भाव मे अकेले स्थित होना, राशि स्वामी शुक्र का लग्नस्थ शत्रु राशि कर्क में होना तथा लग्नेश चन्द्र का शत्रु राशि तुला में चतुर्थ में होना, साथ ही बारहवे राहु की पंचम दृष्टि सुख स्थान पर जिसमे गजकेसरी व महालक्ष्मी योग बन रहा है आदि। साथ ही वर्तमान में अकारक ग्रह बुध की महादशा में शुक्र का अंतर चल रहा है, बुध व्ययेश और पराक्रमेश भी है, शनि की दशम दृष्टि राहु पर है।।
जवाब देंहटाएंमंगल चतुर्थ स्थान पर गुरु, चन्द्र के साथ तुला राशि स्थित है।
मेरे जन्म के 9 माह पश्चात मेरी माता की मृत्यु हो गयी, 16 वर्ष की आयु में पिता भी चल बसे, भाईबहन एक भी नही है, शिक्षा में व्यवधान हुआ,शारीरिक दुर्बलता, विचारो में जन्म से ही कामुकता एवं अधिक बोलने से भारी नुकसान होता है, जीवन सदा कर्जे में अथवा अनियंत्रित बेवजह के खर्चो पर या ऐशोआराम की चीजों पर हो ही जाता है, मन स्थिर नही रहता, दो कन्या सन्तान है, आय की स्थिति नोकरी पर टिकी है जो लगती छूटती रहती है, पत्नी का स्वास्थ्य गम्भीर है, सन्तान दुसरो के भरोसे पलती है, आत्महत्या के विचार आते है अथवा घर से कही दूर एकांत में चले जाने के विचार बनते है, जीवनसाथी से गहरे मतभेद है कर्क लग्न है तो आप समझ ही गए होंगे, भावनाएं प्रभल रहती है भावुकता कूट कूट के भरी है बस प्रायः छलक ही जाती है,38 वर्ष की आयु हो चली है कुछ राह कोई हुनर नही मिला या दिख रहा है, बैंको का कर्ज हो चुका है, दोनो आंखे भी कमजोर हो गयी है, बवासीर, व किडनी जैसे कुछ रोग भी चपेट में लिए हुए है।।
क्या आप कुछ सहायता कर सकते है???
आशीष श्रोत्रिय
9009926034
जून 2021 के पश्चात आपकी दूर की यात्राओं का संजोग एक वर्ष के भीतर बन रहा है,,आप जबरदस्त पित्र दोष से पीड़ित हैं,,योग्य ब्राह्मणों से निवारण कराएं..तथा तांबे से सवा आठ रत्ती माणिक धारण करें..
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