शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

Love marriage... प्रेम विवाह

संसार का ऐसा विरला ही कोई कुंवारा या कुंवारी होगी जिसने यदि कभी किसी ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखाई हो और अपने प्रेम विवाह के विषय में सवाल न किया हो।सदियों से ये शब्द हर मनुष्य के मन को एक सुखद एहसास ,एक रूमानी दशा से दो चार करता आया है।तो आइये आज इसी विषय पर चर्चा करने का प्रयास करते हैं।
                                               आम बोलचाल की भाषा के प्रेम विवाह व ज्योतिष शास्त्रानुसार प्रेम विवाह में फर्क होता है,होना भी चाहिए और अधिक आवश्यक है की जातक व ज्योतिषी दोनों को इस फर्क का पता होना चाहिए।कालांतर में प्रेमविवाह के अर्थ बदलते रहे हैं।आज जो हो रहा है वो प्रेम विवाह नहीं है,आपसी समझौता है अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए।आज से तीस चालीस साल पहले जब जाती प्रथा का ठीक ठाक बोलबाला था ,तब दूसरी कौम ,दूसरी जाति के रीति रिवाजों के प्रति आकर्षण ही प्रेम था।राजा राम के समय काल में स्वयंवर का मौका मिल जाना ही प्रेम विवाह के दायरे में आ जाता था।मुगलकालीन दौर में कई रानियों में से विशेष का दर्जा पा लेना भी प्रेम विवाह माना  जा सकता था.
                                       वास्तव में जब से ज्योतिष शाश्त्र की रचना हुई है तब से अब तक हालत बहुत बदल गए हैं।चीजों को देखने का नजरिया ,उनका होना ,उनका अर्थ सब के मायने बदल गए हैं। अब आप यदि अपने जीवन साथी के साथ प्रेम कर पा रहे हैं ,उसके ह्रदय का प्रेम पा रहे हैं तो यही प्रेम विवाह है। यह एक विस्तृत चर्चा का विषय है ,किन्तु यहाँ पर मैं शाश्त्रों में बताये गए कुछ योग जो कुंडली में आपकी पसंद के व्यक्ति विशेष को आपके जीवन साथी के रूप में पाने के आपके मौकों के बारे में बताते हैं उनका जिक्र कर रहा हूं।
     पंचम भाव कुंडली में प्रेम का भाव कहा गया है।वहीँ सप्तम भाव विवाह का भाव है।पंचम भाव जुआ ,सट्टा ,खेल और ऐसे सभी कामों का भाव भी है जिसके रिसल्ट के बारे में हम कुछ भी पक्का नहीं कह सकते।यहीं ध्यान देने वाली बात यह भी है की सप्तम भाव मारक भाव भी माना जाता है। व साझेदारी का भाव भी है।अब आप प्रेम विवाह को कुछ ऐसे भी मान सकते हैं की कोई ऐसी साझेदारी जिसमें आपसी प्रेम आपसी विचार सदा बने रहें।    
       कुंडली में सप्तमेश व पंचमेश दोनों का योग होना या किसी भी प्रकार से आपस में सम्बन्ध होना इस प्रकार की साझेदारियों के लिए उपयुक्त माना जाता है।
              -पंचमेश ,सप्तमेश व शुक्र का की कुंडली में कहीं भी होना प्रेम विवाह की संभावनाओं को बताता है।
-शुक्र व सप्तमेश यदि पंचम भाव में हों तो जातक प्रेम विवाह की कोशिश करता देखा जा सकता है।
-पंचमेश व सप्तमेश का राशि परिवर्तन हो तो जातक चाहे प्रेम विवाह की संभावनाओं को बताता है .
-मंगल पर शुक्र की दृष्टि बार बार जातक को प्रेम करने को उकसाती है।वह कई बार जीवन में प्रेम करता है किन्तु विवाह हो या न हो इसकी कोई गारंटी नहीं होती।
-पंचम या सप्तम भाव पर सूर्य की उपस्थिति भी कई विद्वानों द्वारा प्रेम विवाह का सूचक मानी जाती है।(किन्तु यह सूत्र आज तक मेरी समझ में आया नहीं )
देश ,काल पात्र या परिस्तिथियों में भिन्नता ही शायद प्रेम विवाह कही जाती हो।भविष्य में इस विषय को आगे बढाने का प्रयास करूँगा।

विशेष :प्रतीक जी का आभार।नयी पोस्ट के इंतजार के लिए।   

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

ग्रहों की नैसर्गिक मैत्री व उच्च - नीच का प्रभाव

बात जब भी ग्रहों की होती है तो अक्सर उनके मैत्री चक्र का भी जिक्र होता है.सामान्यतः ग्रह को अपने मित्र की राशि में उच्च व शत्रु की राशि में नीच होना चाहिए.किन्तु आप ध्यान दीजिये की वास्तव में ऐसा नहीं है. ग्रह का शत्रु राशि में होना उसे अपना नैसर्गिक हुनर ,अपना स्वाभाविक रूप दिखाने से रोकता है वहीँ मित्र राशि का ग्रह अपने स्वभावानुसार सरलता से अपने गुण प्रदर्शित कर लेता है.हर ग्रह के अपने अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के लक्षण होते हैं,गुण अवगुण दोनों होते हैं.मंगल का गुण युद्ध के मैदान में देखने को मिलता है,अवगुण हत्या लूटपाट के रूप में सामने आता है.चंद्रमा का गुण कला ,संगीत ,स्वाभाव की सौम्यता  के रूप में दिखता है,तो अवगुण मानसिक संताप,डर के तौर पर देखा जाता है.शुक्र का गुण स्टाइल ,नफासत ,हुनर के रूप में सामने आता है तो अवगुण छिछोरापन दिखाने वाला होता है.गुरु का गुण ज्ञान की भूख दिलाता है तो अवगुण अपने सीमित ज्ञान को भी दूसरों से श्रेष्ट का भुलावा देना है.इसी प्रकार ग्रहों के अपने अपने गुण अवगुण देखने को मिलते हैं.
                      शुक्र की दोनों राशियों में ब्रहस्पति को शत्रु राशि स्थित माना जाता है,किन्तु वहीँ दूसरी और अपने शत्रु की मीन राशि में आते ही दैत्यगुरु शुक्र उच्च का प्रभाव देने लगते हैं.कारण यह है की गुरु के घर में शुक्र अपनी शक्तियों को गुरु के शुभ प्रभाव से मिला देता है तो स्वयं किसी भी प्रकार के भटकाव से बचकर अपना गुण बेहतरीन रूप से प्रदर्शित करने वाला बन जाता है.इसीलिए मैं व्यक्तिगत रूप से मीन राशी के शुक्र से बनने वाले मालव्य योग को तुला व वृष के मालव्य योग से बेहतर मानता हूँ.यहाँ गुरु की सदबुद्धि जो शामिल होती है. जातक कम बोलने वाला व सभ्य होता है. वहीँ अपने परम मित्र बुध की कन्या राशि में इस शुक्र पर कोई लगाम नहीं रह पाती,अततः वह अपने अवगुणों को प्रदर्शित करने वाला माना जाता है.  भोग विलास ,दिखावे का यहाँ   चरम दिखाई पड़ता है.  
                                             परम मित्र होकर भी मंगल चंद्रमा के घर को अपनी नीचता द्वारा बिगाड़ने हेतु जाने जाते हैं वहीँ शत्रु शनि के घर पर  उच्च के हो जाते हैं.वास्तव में मंगल शूरता के कारक हैं.भला ठन्डे, सौम्य व स्वाभाविक शांत चंद्रमा के घर में उन्हें अपनी शूरता दिखाने का मौका कहाँ मिलने वाला था.इसके लिए अपने शत्रु की राशि मकर में आते ही ये अपने सारा हुनर दिखाने वाले बन जाते हैं. मकर में ये शारीरिक दक्षता की संभावनाएं दिखाते हैं तो कर्क में आकर अपनी उग्रता .शूरता को थामने हेतु मादक पदार्थों या अन्य किसी प्रकार का ऐब देने वाले बन जाते हैं.मकर में आदेश देने वाले होते हैं व कर्क में किसी का भी आदेश न मानने वाले.
                          भावनाओं ,व कला के कारक चन्द्र को  वृष के रूप में जब मोहक अदाएं व स्वयं को नफासत से प्रदर्शित करने वाले शुक्र (शत्रु ही सही) का साथ मिल जाता है तो गन्धर्व जैसे योगों का निर्माण होता है.चन्द्र के गुण यहाँ खुल कर सामने आने लगते हैं .उनकी कला को विस्तार प्राप्त होने लगता है. अपनी राशि में चन्द्र प्रबल भावनात्मक असर देने वाले हैं,तो मंगल की नाकारात्मक राशि में मित्र के घर होते हुए भी अपनी नैसर्गिक सौम्यता त्यागकर कुटिल चालें चलने,व भावनाओं को अन्दर ही अन्दर दबाने के लिए कोशिश करने वाले ग्रह के रूप में देखे जाते हैं.
                         पात्र -कुपात्र के चक्र से दूर रहकर गुरु का काम सबको शिक्षा,ज्ञान व संयम का दान देना है.शांत रहकर गुरु कर्क राशि में अपना ये दायित्व बेहतर तरीके से निभाते देखे जाते हैं. मांगने पर उचित सलाह देते हैं (ध्यान दें की आजकल मैनेजमेंट आदि से सम्बंधित सभी कार्य वास्तव में गुरु की देन हैं.) वहीँ शनि (जिनका काम चीजों को पृथक करना है, न्याय  अन्याय की बात करते हुए हालत का विचार करना है,दूध का दूध पानी का पानी करना है )की मकर राशि में आते ही स्वयं को असहाय पाते हैं.क्योंकि वो भेद भाव नहीं कर सकते.चीजों को ,जातकों को अलग अलग नहीं कर सकते (गुरु होने के नाते )  .ऐसी अवस्था में ये नीच मान लिए जाते हैं तो क्या अचम्भा है?यहाँ ये बिना मांगे सलाहें देते फिरते हैं.अपने ज्ञान के प्रदर्शन के लिए हर जगह अपनी टांग फंसाते दिखते हैं.भाषा के स्तर पर दूसरों का ह्रदय दुखाते हैं .
                                     इसी प्रकार सूर्य के सर्वाधिक निकट के ग्रह बुध महाराज ,सबसे जल्दी अस्त व बार बार वक्री होते हैं.अततः उच्च के रूप में इन्हें स्वयं की  कन्या राशि ही भाती है.अपनी बार बार बदलती अवस्था के कारण ये खुद के घर में स्वयं को अधिक सहज पाते हैं. बोलने की क्षमताओं के कारण शत्रु गुरु की मीन राशि पर आते ही इनकी बोली को ज्ञान का छौंका लग जाता है तो फिर भला क्यों ये किसी की सुनने वाले .नेतागिरी या बेधड़क बोलने के कामों में ,किसी को नीचा दिखाने वाली बातों में इनका कोई सानी नहीं रहता.किन्तु अपनी उच्च राशि में ये सारगर्भित बातें ,सटीक बातें करने वाले बन जाते है,
                                         इसी प्रकार हम अन्य ग्रहों का उदाहरण भी समझ सकते हैं.अततः जहाँ तक समझ में आता है ,ज्योतिषियों को शत्रु राशि में बैठे ग्रह व नीच के ग्रहों में अंतर कर ही कुंडली का कथन करना चाहिए.दोनों स्थितियां भिन्न हैं ,व रिसल्ट भी भिन्न ही देती हैं.    प्रस्तुत लेख पर आपकी अमूल्य टिपण्णी की  बाट जोहूँगा तथा तभी आगे  ग्रहों के बारे में कुछ और रोचक बताने का प्रयास करूँगा,  प्रणाम ...

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