सोमवार, 17 मार्च 2014

सीता कि अग्नि परीक्षा भाग -२

श्रीखंड सम  पावक प्रबेश कियो सुमरि प्रभु मैथिलि
जय कोशलेश महेश बंदित चरण रीति अति निर्मली
प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुँ जरे
प्रभु चरित कहूं न लखें  नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं  खरे   
            इन पंक्तियों के साथ ही इस कथा का अगला अध्याय आरम्भ होता है जिसे हमने भाग १  http://rightsunshineforu.blogspot.in/2013/09/blog-post_20.html में अधूरा छोड़ा था।सीता की  अग्नि परीक्षा के सन्दर्भ में उठने वाले प्रश्न के द्वारा श्री राम के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले   अज्ञानियों द्वारा हर समय ये संशय किया जाता रहा है कि मर्यादाओं कि रक्षा का प्रमाण प्रस्तुत करने वाले अवध नायक ने सीता को अग्नि परीक्षा के लिए कह कर सभ्य समाज में स्त्रियों की भूमिका को ,उनके महत्त्व को कम किया है। ऊपर कही पंक्तियों में तुलसीदास जी यही कह रहे हैं कि प्रभु के इस चरित्र (खेल)को किसी ने नहीं जाना। नहीं समझा।
                            वनवास के अंतिम वर्षों में राम कुछ अजीब सी संधिग्ध परछाइयों का अनुभव आश्रम के आस पास कर रहे थे। वनवास काल में अब वे बहुत कुछ राक्षसों के विषय में जानने समझने लगे थे। ऐसे में जब सुपर्णखा वाला हादसा हो चुका था ,राम सीता जी कि सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित थे। अपने विश्वस्त सूत्रों से राम को मालूम हुआ था कि राक्षस सीता जी को हानि पहुँचाने का प्रयास कर सकते हैं।
                वो विद्या जिसका जनक स्वयं रावण था और अब अपने वनवास काल में ऋषियों के  सहयोग  से राम स्वयं इसमें निपुण हो चुके थे ,(जिसे आज हम क्लोन आदि के रूप में जानते हैं ) ये बात अपने सूत्रों से रावण को ज्ञात हो चुकी थी 
                                       कालान्तर में  सीता जी का अपहरण रावण के द्वारा किया गया।  सीता का अपहरण कर रावण जब सुरक्षित अपने क्षेत्र में प्रवेश कर गया तब उसे सीता पर कुछ संदेह हुआ।  रावण दुविधा में था ,जल्दबाजी में कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गयी उससे ? ऐसे में जैसे ही रावण ने ये आभास किया कि कहीं राम ने भी तो छल  द्वारा उसे दूसरे ही क्लोन का अपहरण करने का मौका तो नहीं दिया जान बूझ कर।  तो अब सीता को अपने साथ अपने महल में ले जाने का रिस्क लेना उचित नहीं था। ये शत्रु की किसी साजिश का हिस्सा हो सकता था। जब तक सीता के बारे में रावण आश्वश्त नहीं हो जाता तब तक उसे कहीं किसी और ठिकाने पर रखना उचित था।जब से मेघनाथ ने इंद्र को पराजित किया था तब से ही देवता इस मौके की प्रतीक्षा में थे कि कैसे रावण का दर्प चूर किया जाय। दशरथ कि देवताओं से निकट मित्रता रही थी और पूर्व में भी देवासुर संग्राम में दशरथ देवताओं की ओर से युद्ध में भाग ले चुके थे। ऐसे में राम का देवताओं से जाहिर तौर पर मित्रता के सम्बन्ध थे। अब बहुत सम्भव था कि देवताओं द्वारा रावण के खिलाफ किसी प्रकार के अभियान में राम भी उस षड्यंत्र का हिस्सा हों। ये बात दिमाग में आते ही रावण का मन संशय में डूब गया। पता नहीं क्या होने जा रहा है ,विभीषण द्वारा गुप्त रूप से रावण के खिलाफ प्रजा को भड़काया जा रहा है ऐसा समाचार भी उसे प्राप्त था ,मेघनाद के बढ़ते वर्चस्व से उसके अन्य पुत्र अब रावण से  मतभेद  रखने लगे थे ,और जब से मेघनाद ने इंद्र को पराजित किया है तब  मंदोदरी भी रावण की हर नाजायज हरकत का खुलकर  विरोध करने लगी है। अपने पिता से अधिक इंद्रजीत पर अपनी माँ का प्रभाव है। ऐसे में सीता को सीधे महल में ले जाने  का साहस रावण का नहीं हुआ। अशोक वाटिका पर अभी पूरी तरह से रावण का ही प्रभाव था ,उसके विश्वास पात्र सैनिक ही वहाँ स्थापित थे ,अतः सीता के लिए फिलहाल वहाँ से सुरक्षित स्थान कोई नहीं है ,ऐसा विचार कर उसने सीता को लेकर अशोक वाटिका का रुख किया। 
             पाठक वृंद जानते हैं कि रावण विजय के पश्चात राम ने जब सीता को अग्नि परीक्षा के लिए कहा तो उसका वास्तविक अर्थ आग में बैठ कर जलना नहीं था ,असल में उस समय के अनुसार अग्नि देव उन शक्तियों से सुसज्जित थे जिसके द्वारा किसी के असल नक़ल का पूर्ण विश्लेषण वे कर सकते थे। संसार को ये साबित करने के लिए कि कहीं रावण ने असली सीता का वध कर उसके बदले अशोक वाटिका में नकली सीता तो स्थापित नहीं कर दी थी ,राम ने सीता कि अग्नि परीक्षा करा लेने उचित समझा।रावण कि खुरापाती खोपडी का कोई भरोसा नहीं था। अतः मजबूरन राम को अग्नि की सहायता लेनी ही पड़ी। 
                                 अग्नि देव ने अपनी विद्या के द्वारा ये साबित किया कि ये वो ही  पहले की सीता है। ये परीक्षण सीता जी के अस्तित्व को लेकर हुआ था न कि उनके चरित्र को लेकर।मज़बूरी में उठाये गए इस कदम को बाद में इतिहासकारों  ने  दूसरे ही रूप में प्रस्तुत कर राम के चरित्र पर ही  दाग लगा दिया।
                  आशा है आप लोग सहमत होंगे। भविष्य में इसी कड़ी को आगे जोड़कर बताने का प्रयास करूँगा कि सीता जी को बाद में वाल्मीकि के आश्रम में क्यों  भेजना पड़ा ,और दोष राम व धोबी के सर पर आया। आप लोगों कि प्रतिक्रिया ही आगे लिखने का सम्बल प्रदान करेगी। होली कि शुभकामनाओं के साथ। … www.astrologerindehradun.com                             

शनिवार, 30 नवंबर 2013

Goal of Arjun.... लक्ष्य

द्रुपद के माथे की लकीरें निरंतर गहराने लगीं थी.कहीं अपने अपमान का बदला लेने की जिद में उन्होंने द्रौपदी के स्वयंवर की परीक्षा इतनी कठिन तो नहीं रख दी जो अब द्रौपदी के भविष्य के साथ साथ स्वयं उनके सम्मान को भी आहत करने वाली थी. न जाने क्यों अचानक द्रुपद को आज राजा जनक का स्मरण हो रहा है.क्या अपनी पुत्री के लिए उपयुक्त वर की आकांक्षा रखना पिता के लिए गलत है.अब क्या होगा.एक एक कर संसार के अनेक धनुर्धारी परीक्षा में असफल होकर अपने स्थानों पर मुंह लटकाए बैठे हैं,व परीक्षा प्रांगण में छत पर घूमती मछली मानो अब भी मुस्कुराते हुए उन्हें मुंह चिढ़ा रही है.त्रेता में तो जनक का संताप
मिटाने स्वयं राम अवतरित हुए थे.यहाँ कौन है,जो द्रुपद को आस बंधाये?
                      सभा मौन है,सभी के चेहरों पर निराशा और संशय के बादल हैं.द्रौपदी ने आहिस्ता से अपनी सखी के हाथ को अपने हाथ से हटाया और कृष्ण की और देखा.जिस दिन कृष्ण ने द्रुपद को स्वयंवर का सुझाव दिया था तो ये भरोसा दिलाया था की इस के द्वारा द्रौपदी आर्यव्रत के सर्वश्रेष्ट धनुर्धारी को अपने जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करेगी.कृष्ण अभी भी उसी प्रकार मंद मुस्कान अपने अधरों पर धारण किये हैं जो जो उनकी चिर संगिनी है.अपने शैशव काल से,( जिस किसी ने भी कृष्ण के जीवन का परिचय पाया है ,उसे भली भाँती ज्ञात है कि ) कृष्ण कभी सामान्य जीवन नहीं जी पाए.हर समय कोई न कोई विपदा -समस्या से सदा उनका चोली-दामन का साथ रहा है,व कुछ भी परिस्थितियां रही हों किन्तु इस मुस्कराहट ने कभी अधरों का त्याग नहीं किया.कृष्ण की इसी मुस्कराहट का भेद जानने वाला हर कोई
उन्हें ईश्वर मानता है और उसका ह्रदय भली भाँती जानता है की जब तक भगवान् के अधरों पर ये मुस्कान है तब तक संसार की कोई शक्ति उसका अहित करने का सामर्थ्य नहीं रखती.
          कृष्ण मुस्कुरा रहे थे,अर्थात अभी कुछ सामने आना बाकी है.संसार साक्षी है कि कालिया नाग व इंद्र तक का घमंड चूर करने वाले यशोदानंदन ने अपने वचन का निर्वाह करने,उन पर भरोसा रखने वाले के सम्मान की रक्षा के लिए कई बार प्रकृति के नियमों को भी लांघने का साहस किया है.भक्त की लाज के लिए अपने चरित्र के विरलतम लक्षणों का प्रदर्शन संसार के सम्मुख भविष्य में कई बार उन्होंने किया  पाठक वृन्द भली भाँती  इससे परिचित हैं.
             कृष्ण की मुस्कराहट ने पांचाली को आश्वश्त किया. यही आश्वासन ब्राह्मण दीर्घा में बैठे सुगठित शरीर के उस युवक ने भी पाया,जिसकी भुजाएं अभी तक के घटनाक्रम का साक्षी बनने के बाद मानो स्वयं का परिचय देने हेतु नाड़ियों के प्रवाह को त्याग ,फट जाने को आतुर थी.एक एक प्रतियोगी के असफल होने के साथ साथ सभा की मायूसी उसके संयम की चरम परीक्षा थी.ओह फिर कोई चूका.नवयुवक उस प्रतियोगी के लक्ष्य भेदन से पूर्व ही ताड़ गया था की ये घूमती मछली की आँख को नीचे रखे जल से भरे कुंड में निहारकर भेदने का सामर्थ्य नहीं रखता.भला जो सही प्रकार से धनुष को सीधा थामना  नहीं जान सका हो वो उसके संचालन में किस प्रकार निपुण हो सकता है.युवक का संयम छूट रहा है.एक मौका मिले तो वह क्षण भर में इस सभा को बता सकता है की धनुष विद्या किसे कहा जाता है व लक्ष्य कैसे भेदे जाते हैं.
               किन्तु अभी तक कृष्ण का संकेत युवक की नहीं मिला है.न जाने क्या सोच रहे हैं कृष्ण?क्या है उनके मन में? अपनी उत्कंठाओं को दबाये बैठा युवक जानता है की सफलता ने सदा उन्ही वीरों के चरणों में शीश नवाया है ,जिन्होंने संयम की कला सीखी है.अपने भावों  को ,अपने वेग को ,अपने ज्ञान को जो वीर शांत भाव से प्रदर्शित करने की कला में निपुण हो पाया है ,उसी के आदेश की दासी सदा सफलता की देवी बनी है .अतः संयम रे मन ,संयम.
             अचानक युवक को लगा की कृष्ण की भृकुटी ने हलचल की है.युवक को उसका बहु प्रतीक्षित संकेत प्राप्त हुआ ,मानो प्राण मिले.वर्षों से मन में पल रहा संयम आज स्वयं को समस्त संसार के सम्मुख प्रदर्शित कर देना चाहता है.स्वयं पर व अपने परिवार पर आज तक होते आये अत्याचार ,भेदभाव का विरोध आज खुल कर करने का समय है.आज विश्व को अपनी भुजाओं का हुनर,अपनी आँखों का सामर्थ्य अपने कौशल का परिचय देने का समय है.कुरुवंश के साथ ही समस्त राज्यों के परम योद्धा यहाँ आज उपस्थित हैं.आज नहीं तो कभी नहीं.
                    सभा ने एक और प्रतियोगी को जल कुंड की ओर बढ़ते देखा.किन्तु यह सामान्य प्रतिभागियों से भिन्न है.इसका शरीर मानो अग्नि में तपा कुंदन है,इसकी एक एक शिरा अपने पर किये परिश्रम की कथा खुद कहती है.इसकी चाल में आत्मविश्वास झलकता है.क्या यह वीर राजा  द्रुपद की असंभव सी प्रतीत हो रही इस प्रतिज्ञा की अग्नि में अपने कौशल का प्रदर्शन कर इसका मान रख पायेगा?
                  युवक ने जलकुंड की ओर कदम बढ़ाये.चलते चलते शीघ्र दृष्टी से पांचाली की ओर देखा.आज इतिहास बनने वाला था.संशय सभा के मन में हो सकता है,युवक के ह्रदय में किंचित भी नहीं.उसने सदा गुरु की बताई बातें ह्रदय से ग्रहण की हैं..अपने अभ्यास में रात दिन की परवाह नहीं की है.परीक्षा कठिन जरुर प्रतीत हो रही है किन्तु युवक के लिए यह कौतुहल से अधिक कुछ नहीं.विद्या पर अपने कौशल पर उसे उतना ही अटल विश्वास है जितना इस बात पर की समग्र ब्रह्माण्ड की गतियाँ योगेश्वर कृष्ण की तर्जनी से संचालित हैं.फिर वो कोई साधारण मनुष्य तो स्वयं भी नहीं है.वो अपनी माता को देवताओं के राजा  इंद्र के वरदान से प्राप्त हुआ है.आर्यव्रत के सर्वश्रेष्ट गुरु आचार्य द्रोण का वह सर्वश्रेष्ट शिष्य है.बचपन सी ही उसकी दृष्टि ने लक्ष्य के सिवा अन्य कुछ भी न देखने का अभ्यास किया है.उसे कृष्ण के रूप में सर्वोत्तम मित्र की प्राप्ति है. वह उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में जन्मा सूर्य का सा प्रताप लिए पार्थ है, धनञ्जय है.वो जग को जीतने का सामर्थ्य रखने वाला अर्जुन है.
                       अर्जुन ने जल कुंड के निकट रखे धनुष को निहारा कुछ हलके स्तर का प्रतीत हो रहा है,किन्तु कोई समस्या नहीं.समग्र दृष्टि से उसने सभा को देखा,व अंत में घुमते हुए लक्ष्य को देखा .अर्जुन नें मन ही मन गुरु को प्रणाम किया,वो आज जो कुछ भी है अपने गुरु के ही तो आशीर्वाद से है.घुटनों के बल बैठ कर धनुष को हाथ में लिया.हाँ अब ठीक है,अर्जुन का प्रिय अस्त्र उसके हाथ में है.धनुष हाथ में आते ही सदा से अर्जुन का आत्मबल आकाश को लांघने लगता है.कुछ भी असंभव नहीं रहता.
                      अर्जुन ने लक्ष्य साधा,अपने ध्यान को मात्र मछली की आँख पर केन्द्रित किया.इतिहास साक्षी है सदा से की जिन वीरों ने लक्ष्य से सम्बन्ध रखा है ,उन्होंने सदा उसे प्राप्त किया है.क्षण भर में समस्त ब्रह्माण्ड की शक्ति उसने अपनी भुजाओं में महसूस की,सभा सांस रोके खड़ी थी,धनञ्जय ने भी अपने श्वास की गति को नियंत्रित किया,क्षण भर में  बाज की सी चतुर दृष्टि से  लक्ष्य से अपनी दूरी को सटीकता से भांपा .अब मात्र ऊपर घूमती आँख का प्रतिबिम्ब जल में दिख रहा था.अर्जुन से क्षण की महत्ता को समझा व तीर छोड़ दिया.पलक झपकते ही बाण अपने लक्ष्य को भेद चूका था.पुष्पों की वर्षा अर्जुन पर होने लगी थी.समस्त विश्व उसके बल की ,उसके कौशल की थाह पा चूका था.वह अपना सम्मान वापस प्राप्त कर चुका था.वह संसार का सर्वश्रेष्ट धनुर्धर था.उसकी जय जयकार से सभा आनंद में डूब चुकी थी.पांचाली ने कृष्ण की और देखा.उन्होंने अपना वचन निभाया था .भगवान् मंद मंद मुस्कुरा रहे थे.