मंगलवार, 12 जून 2012

मेहनत है पर सफलता क्यों नहीं


ये एक ऐसा प्रश्न है जो जाने अनजाने सभी के मन को  कचोटता रहता है,सफलता की कोई सीमा नहीं है न ही कोई सर्वमान्य मापदंड इसके लिए तय  हुआ है.हर इंसान सदा आगे ही बदना चाहता है और इसी कारण हर वो मंजिल उसे छोटी लगती है जिसे वह हासिल कर चुका होता है. और आगे ,और ऊंचा और बड़ा ,और ...और ....और......और...पता  ही नहीं लगता  की इस और के फेर में कब जीवन की संध्या बेला आ गयी . 
                                                 जीवन को चलने के लिए धन की आवश्यकता होती है,व धन प्राप्ति के लिए कोई न कोई रोजगार चाहिए.ज्योतिषीय पहलु से देखें तो दशम ,तृतीय व लग्न का आपस में किसी प्रकार का सम्बन्ध होना व इस में भाग्य भावपति का छोटा सा भी किरदार बेहतरीन छोंके का  काम करता है.जातक अमूमन दसम भाव से सम्बंधित या दशम भाव को प्रभावित करने वाले  ग्रह से जुड़ा हुआ ही कोई कार्य अपने जीवन में करता है. इसमें सफलता इस बात पर निर्भर करती है की लग्नेश व पराक्रमेश का आपस में कैसा सम्बन्ध है.यदि लग्नेश पराक्रमेश से आगे स्थापित होता है तो जातक जितनी मेहनत करता जाता है उतना ही फल उसे प्राप्त होता जाता है.  यदि इसी क्रम में भाग्येश भी पराक्रमेश से आगे हो जाता है तो जातक कम मेहनत में ही अधिक सफलता प्राप्त करने लगता है.अब आप सोच रहे होंगे की इसमें दशमेश का क्या रोल है.बंधुओ दशमेश ही यह निर्धारित करता है की वह सफलता कितनी टिकाऊ है?इसी के उलटे क्रम में यदि लग्नेश व भाग्येश पराक्रमेश से पीछे होते हैं तो जातक लगातार अपनी और से तो मेहनत करता जाता है किन्तु सफलता उससे कोसों दूर रहती है.वह आगे आने के लिए निरंतर संघर्षरत रहता है किन्तु भाग्य सदा उसे निराश करता है.
                                                        पराक्रमेश व दशमेश एक लाइन में होते हैं ,अब यदि इनके स्वाभाव में नैसर्गिक विषमता होती है तो जातक की क्षमताओं का उचित मूल्यांकन नहीं हो पता.उदाहरण के लिए वृश्चिक लग्न में यदि पराक्रमेश शनि कहीं से भी दशमेश सूर्य को प्रभावित कर देता है तो जातक नौकरी नहीं कर पता.या तो उसे नौकरी मिलती ही नहीं या मिलती भी है तो वह अधिक समय तक उस में टिक नहीं पाता.अततः जातक को चाहिए की ऐसे में नौकरी पर समय ख़राब न कर स्वयं का कार्य व्यवसाय करे.क्योंकि सूर्य के प्रभाव के कारण वह साधारण स्तर की नौकरी कर नहीं पाता व शनि का प्रभाव उसे उच्च स्तर की नौकरी पाने नहीं देता.अततः यहाँ ऐसा कार्य जिसमे जातक खुद ही बॉस हो ,ठीक रहता है.यहाँ उसके हुनर उसकी काबिलियत को सही दिशा व उचित फल प्राप्त होता है.  मेरे एक जानने वाले महाशय इसी योग के फलस्वरूप कुछ साल साधारण स्तर की नौकरी में बर्बाद कर आखिर में स्वयं के धातुओं के व्यवसाय में उतर कर अब मोटा प्रोफिट छाप रहे हैं.
                                                       अततः यदि कभी ऐसा महसूस करें तो किसी अच्छे ज्योतिषी को अपनी कुंडली दिखाकर ये जान लें की कहीं आप दशमेश के स्वाभाव के विपरीत काम धंदे में तो नहीं हैं.एक छोटा सा टर्न आपके लिए सफलता के द्वार खोलने में सक्षम है.                
    

सोमवार, 11 जून 2012

ग्रहों का महत्व

मनुष्य को एक बात सदा जेहन में रखनी चाहिए की ग्रह कभी आसमान से नीचे नहीं आते हैं.वो ऊपर से ही अपना प्रभाव देते हैं और धरती पर उनसे सम्बंधित लोग,पेड़-पौधे,जानवर,धातुएं व रत्न आदि उनकी शक्तियों को हम तक पहुँचाने का काम करते हैं.अब लग्न निर्धारित करता है की किन रिश्तों,रंगों ,धातुओं ,जानवरों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण किरदार होने वाला है.लग्न के हिसाब से आकारक भावों के अधिपति हमारे लिए कुछ महत्व नहीं रखते,ये थेओरी ही गलत है.कई अच्छे-अच्छे ज्योतिषियों को इस विषय पर भ्रमित होते हुए देखता हूँ.अगर इस बात को ही आधार मान लिया जाये तो जातक के जीवन में आधे ग्रहों का कोई रोल नहीं रहने वाला है.क्या ऐसा होना संभव है?  शायद नहीं.
                                                                 कारक  भावों का अधिपति होने का अर्थ वास्तव में ये होता है की इन के द्वारा जातक को जन्म जात सपोर्ट मिलता है,वहीँ दूसरी और कुछ अकारक भावों के अधिपतियों को अपने पक्ष में करने के लिए हमें हाथ पैर चलाने पड़ते हैं.अब यदि तृतीय भाव के स्वामी को हम अकारक मानकर उसकी परवाह नहीं कर रहे  हैं व वह स्वयं  कहीं कमजोर हो रहा है.तो क्या हम अपने पराक्रम का उचित फल पा पाएंगे? उदाहरण के लिए समझ लो की ये हमारे अपने ही परिवार के सदस्य हैं जो किन्ही कारणों से हमसे नाराज चल रहे हैं,अब हमें अपने सुखी जीवन के लिए शास्त्रोसम्मत  इन्हें अपने पक्ष में करके अपनी समस्यों का निवारण करना है.वहीँ दूसरी ओर जो ग्रह कारक होकर शुभ अवस्था मैं हैं उन से अधिक छेड़-छाड़ की आवश्यकता नहीं है,और जो कारक होकर कमजोर हो रहे हैं उनका रत्न आदि धारण करके अन्य उपचार करते रहने चाहियें.
                                              अकारक ग्रहों से संबंधित नाते-रिश्तेदारों से जब हम किसी कारणवश दूरियां बना लेते हैं तो ये ग्रह अधिक दुःख दाई होने लगते हैं.उदाहरण के लिए देखने में आता है की यदि कुंडली में बुध (जो की बुआ का प्रतिनिधि है)जब सूर्य से एक घर आगे निकल जाता है तो जातक के पिता अथवा दादा की कोई बहन या तो घर छोड़ कर चली गयी होती है या उसकी अकाल मृत्यु हो जाती है या किसी कारणवश अपने भाइयों से उसका सम्बन्ध ख़राब हो गया होता है.बुआ को दिशा -ध्यानी का पद प्राप्त होता है.वह जिस दिशा में होती है जातक के लिए उस दिशा की रखवाली करती है.ऐसे में जातक को कभी भी उस दिशा से सहायता प्राप्त नहीं होती.बुध वाणिज्य -व्यवसाय का कारक है ,अततः बुआ की ओर से इस प्रकार का कोई दोष आने से जातक को अपने काम धंदे में कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है.वहीँ दूसरी ओर यदि बुध सूर्य से पीछे रह जाता है तो कई बार जातक का अपनी किसी बुआ या बुआ के बच्चों से सम्बन्ध सही नहीं रह पता है.ऐसी हालत में जब भी बुध की दशा या अंतर दशा आती है तो वह उस ग्रह व उस से संबंधित भाव को  जिससे की वह कैसा भी योग बना रहा होता है,ख़राब करने का प्रयास करता है.ऐसे में बुआ से सम्बन्ध सही या तुलसी की सेवा या बुध के व्रत शुभ फल देने में समर्थ होते हैं. 
                ऐसे ही कई अन्य उदाहरण भी हैं.मसलन गले में हल्दी की गाँठ बांधने या जेब में लाल रंग का रुमाल लेकर चलने के जो टोटके होते हैं वो यूँ ही नहीं हैं.इनको मात्र अंधविश्वास मान कर नकार देना हठधर्मिता है .अगले लेख में किसी और ग्रह पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूँगा.इस लेख के प्रति आपकी अमूल्य राय की प्रतीक्षा में रहूँगा.                   

वृश्चिक लग्न में ग्रहों का फल

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भ्रमनचक्र का अष्टम लग्न मैं व्यक्तिगत रूप से सर्वाधिक प्रबल लग्न मानता आया हूँ.कारण इसमें अधिकतर ग्रहों का करक होना है.लगभग सभी ग्रह इस लग्न के जातक को सदा सहायक रहने का प्रयास करते हैं.ऐसे में उन ग्रहों का जरा भी अच्छी स्थिति में होना सोने पर सुहागे का काम करता है.इसी कारन अमूमन वृश्चिक  लग्न के जातक अन्य जातकों की अपेक्षा अधिक कार्यकुशल ,संभावनाओं से भरपूर व भाग्यशाली होते हैं .ग्रह-नक्षत्र कदम कदम पर उनका साथ देते हैं,इसी कारण चीजें उनके लिए सहज होती हैं.बचपन से ही किसी प्रकार का अभाव इन्हें नहीं मिलता,परिणामस्वरूप ये बहुत ज्यादा लापरवाह हो जाते हैं.किसी भी अवस्था में न घबराना और स्थिति  को कुछ ज्यादा ही सहज रहकर निबटने की प्रवृत्ति इन्हें लापरवाह  बना देती है,और इसी कारण ये सुनहरे मौकों को चूक जाते हैं.सदा आगे रहने की इच्छा ,अपने ज्ञान पर जरूरत से ज्यादा विश्वास इन्हें ले डूबता है.
                                                         इस कुंडली में ज्ञान का नैसर्गिक ग्रह ब्रहस्पति यदि भाग्य भाव में विराजमान हो जाता है तो ये अपने आप में ही कई योगों की रचना करने में सक्षम हो जाता है.कर्क राशि गुरु की उच्च की राशि है,साथ ही यहाँ से गुरु की पंचम दृष्टी लग्न पर अपनी मित्र राशि पर पड़ती है.जरा गौर करें की जिस राशि में गुरु उच्च हैं लग्न में उस उच्च राशी स्वामी की नीच राशि होती है , साथ ही भाग्य भाव में (लग्नेश मंगल के मित्र होने के बावजूद) लग्नेश की नीच राशि होती है.इस प्रकार यह लगभग एक प्रकार का नीच भंग (मैं  लगभग कह रहा हूँ)योग व राशि परिवर्तन योग जैसा ही कुछ समीकरण बनने लगता है.ब्रहस्पत्ति दो द्विस्वभाव राशियों के स्वामी होते हैं,ऐसे में जब ये उच्च के होकर लग्न को प्रभावित करने लगते हैं तो जातक के अन्दर अपने आयु वर्ग के अन्य जातकों की तुलना में तिगुना ज्ञान पनपने लगता है.इसी कारण वह शुरूआती शिक्षा में तेजी से आगे बढता है,अपने मुकाबले उसे बड़े भाई बहनों की पुस्तकें अधिक आकर्षित करने लगती हैं.अपने स्तर से ऊँची  किताबें वह पड़ना चाहता है.समझ लीजिये बिजली की हाईटेंसन  की लाइन से वह सीधा अपने घरेलु उपकरण के लिए बिजली  प्राप्त करने लगता है,जिसके कारण सर्किट उड़ने लगते हैं.बीच में कोई ट्रांसफार्मर नहीं,कोई रेगुलेटर नहीं.
                                       ऐसे ही गुरु का ज्ञान बिना उचित अवरोध के जातक के दिमाग को भ्रमित कर देता है.हर विधा में वह अपना दखल रखने की कोशिश करता है.ऐसे में यदि गुरु को बुध का साथ मिल जाता है तो धन के लिए तो ये प्रचंड योग का निर्माण करता ही है साथ ही  जातक का भाषा पर भी असाधारण अधिकार होने लगता है.  किस्से कहानियां सुनाना , भाषणबाजी करना ,गप्पें मारना उसका पसंदीदा शगल होता है. यदि इस अवस्था में जातक को सही घरेलु माहौल व सही मार्ग दर्शन मिल जाये तो दुनिया में कुछ भी उसके लिए असंभव नहीं रहता वरना यही योग उसे राह से भटकाकर पीछे कर देता है.ऐसे जातक शुरू में  टॉपर होते हैं किन्तु नवी -दशमी  के स्तर पर आते आते उनका ग्राफ गिरने लगता है.फेल होने की नौबतें आने लगती हैं.
                                        इस लग्न में दशम भाव में ग्रहों के राजा सूर्यदेव की सिंह राशि होती है.अब यदि सूर्यदेव स्वराशी में विराजमान हो जाते हैं तो जातक के अन्दर जन्मजात राजा के गुण आ जाते हैं.वह कक्षा में पीछे नहीं बैठ सकता,जीवन में छोटे स्तर की नौकरी नहीं कर सकता.यदि क्लास में उसके अलावा किसी और को मोनिटर बना दिया तो उसके लिए असहनीय हो जाता है,वह हाथ धोकर उस के पीछे पड़ जाता है. नौकरी के दौरान अपने सीनिअर्स से ,व अधिकारीयों से उसकी नहीं पट पाती,क्योंकि वह तो जन्मजात राजा है.अब भला उस पर किसी का हुक्म कैसे चल सकता है?
                                        लग्नेश की युति कहीं पर भी शुक्र के साथ हो जाती है तो जातक को मूत्र स्थान से सम्बंधित रोग होने लगते हैं.अत्यधिक कामुकता उस पर हावी होने के आसार बन जाते हैं.महिला मित्र ज्यादा होने लगती हैं .जिस कारण लग्नेश व व्ययेश की युति के कारण जातक शौक़ीन मिजाज़ हो जाता है.अच्छा पहनना ,खुश्बू,आदि के पीछे वह अधिक खर्चा करने लगता है.अपनी चादर से ज्यादा पैर पसारने की आदत जीवन में बैंक बैलेंस को सदा ही निल रखती है.
                                    चंद्रमा इस लग्न में बड़ा महत्त्व रखता है,क्योंकि भाग्य भाव का स्वामी होता है.लग्न में चन्द्रमा की नीच राशि होती है अततः यदि चंद्रदेव जरा भी बुरे प्रभाव में आते हैं तो जातक का अपनी माता से सम्बन्ध सामान्य नहीं रह पाते,सदा खट-पट  बनी रहती है.और जितना अधिक जातक का अपनी माता से वैचारिक मतभेद बढने लगता है उतना ही भाग्य उसके साथ छल करने लगता है.इसी अवस्था के कारण जातक कई शानदार मौके जीवन में चूक जाता है.अततः पूर्ण प्राण-प्रतिष्ठा के साथ साथ सदा मोती धारण करे रहना शुभ फलदायक होता है.
                                 अगले लेख में कभी किसी और लग्न पर चर्चा करने का प्रयास करूँगा.इस लेख पर अपनी राय अवश्य दें.

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