शनिवार, 6 मार्च 2021

संबंध विच्छेद क्यों..

 बेमेल वैवाहिक सम्बन्ध.... क्यों हो जाते हैं सम्बन्ध विच्छेद ....

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            अपने ब्लॉग व वेब साइट की जरिये प्राप्त होने वाले प्रश्नो में सर्वाधिक प्रश्न आजकल वैवाहिक  सम्बंधित प्राप्त हो रहे हैं मुझे … सगाई होकर टूट गई है,,, ,विवाह होने के बाद सम्बन्ध ठीक नहीं चल रहे हैं ,,,विचार नहीं मिल पा रहे ,,,तलाक की नौबत आ पहुंची है आदि आदि....  हमारे पंडित जी ने तो कुंडली बहुत अच्छी जुड़ाई  थी ,,,गुण  भी काफी मिल रहे थे,,फिर अचानक ऐसा क्यों हो रहा है /....क्या कुंडली मिलान उचित प्रकार से नहीं हुआ ???  चारों ओर से इसी प्रकार के प्रश्नो की बौछार कभी कभी हो जाती है... विश्वास कीजिये प्रतिदिन कम से कम  २५ प्रश्न इसी विषय पर हो जाते हैं....

     आइये आज बताने का प्रयास करता हूँ कि आखिर इसकी जड़ में क्या समस्या है ?? ?किन कारणों से ऐसा हो रहा है ??? 

                            वास्तव में पारम्परिक ज्योतिष व सामान्य कर्म काण्ड को आपस में घाल- मेल कर देना ब्राह्मण व यजमान दोनों के लिए असुविधा का कारण बन रहा है..... वैदिक साहित्य ,,,कर्म काण्ड व ज्योतिष स्पष्ट रूप से भिन्न विषय हैं....चन्द्रमा के  एक नक्षत्र मात्र पर  दृष्टि डालकर ,,,,तुरंत पंचांग से वर - वधु गुण मेलापक सारिणी खोल देना,, व २५ गुण मिल गए ,,,२८ गुण मिल गए ये ,,,,शोर मचाकर तुरंत विवाह तय कर देना इसका मूल कारण है...... जानकार ज्योतिषी जानते हैं कि ,इस प्रक्रिया द्वारा कुंडली मिलान में डेढ़ से दो मिनट  का समय मात्र ही लगता है...

कितनी हैरानी का विषय है कि शर्ट का रंग पसंद करने में आपको आधा घंटा लग जाता है,, ,एक साड़ी पसंद करने में एक स्त्री चालीस दुकानो की ख़ाक छान कर आने के बाद भी,,, पसंदीदा साड़ी को एक  घंटे उलट पलट  देखती है,,  ,तब जाकर निर्णय पर पहुंचती है ,,,,,,,और विडम्बना देखिये कि विवाह का निर्णय मात्र डेढ़ मिनट में हो रहा है....भला पूछा जाय उन पंडित जी से कि दो  मिनट में आपने लग्न कुंडली देखकर ,,संतान सम्बन्धी विषय पर विचार कर लिया है, ,इसके लिए उपलब्ध सप्तमांश कुंडली पर (दोनों की)दृष्टि डाल दी है… , विवाह के लिए लग्न कुंडली से कई गुणा अधिक महत्वपूर्ण  नवमांश कुंडली पर भी विचार कर  लिया है ?? .. आजकल की परिपाटी में अमूमन देखने में आ रहा है कि षोढशवर्ग कुंडलियों का निर्माण नहीं हो रहा है,, ,ऐसे में ज्योतिषी के पास मात्र लग्न व  चन्द्र कुंडली ही उपलब्ध होती है....ज्योतिषी अगर नए जमाने के उपकरणों से लैस है तो भी नवमांश व सप्तमांश बनाने में दस मिनट लगने ही वाले हैं ,व अगर वह मात्र पंचांग लेकर बैठा है तो ये घंटों का काम तो है ही....अतः ऐसे में बिना पूर्ण विचार किये ,,,किया गया मिलान कितना प्रमाणिक है ये विचार  का प्रश्न है....

                                कहना व्यर्थ है कि आजकल के नौशिखिया पंडितों की जमात में आधे  ऎसे भी हैं कि जिन्हे योनि (जिससे कि चार गुणों का मिलान किया जाता है ) के विषय में सोचने का ख्याल तक मन में नहीं आता,,,, ,जबकि दो अनजान प्राणियों के एक छत के नीचे आने के लिए,,, ,एक दूसरे के निकट आने के लिए,,, ,स्वयं को एक दूसरे की मौजूदगी में सहज पाने के लिए,,,,सर्वाधिक रूप से महत्वपूर्ण यही गुण होता है......१२ राशियों के २७ नक्षत्रों को ऋषियों द्वारा उनके स्वभाव के आधार पर क्रमशः गरुड़, ,मार्जार, ,सिंह ,,स्वान ,,सर्प ,,मूषक ,,मृग व मेढ़ा,, इन आठ वर्गों में विभाजित किया गया है......जहाँ से स्वयं से पंचम को शत्रु व चतुर्थ को मित्र माना जाता है....

     .मृग की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है कि सिंह को देखते ही वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है... गिद्ध के साथ सांप की  मित्रता चल पाए, ये असंभव है....          

                   ऐसे ही जातक सर्वाधिक आकर्षण सदा स्वयं के विपरीत व्यक्तित्व या कहें शत्रु राशि के लिए अनुभव करता है.... स्वयं की मित्र राशि अथवा स्व राशि  के लिए उसका पहला  रिएक्शन नेगेटिव ही होता है....किन्तु बाद में धीरे धीरे उसके प्रति आश्वस्त होता जाता है,,,जो स्थायी समीकरण होता है......आपने बकरे को,,कुत्ते को,,शेर को,,पंछी को सबसे पहले अपनी ही जाति पे भौंकते,,,चीखते,,,चिल्लाते,,,डराते देखा होगा.....ये अपनी पोजीशन को लेकर असुरक्षा की भावना होती है ,,,जो अपने ही समकक्षी से होती है.. ...आप चाह कर भी शेर व बकरी को एक छत के नीचे नहीं रख सकते,,सांप और नेवले को एक थाली में भोजन नहीं दे सकते,,किन्तु थोड़ी देर की अनमनी के बाद दो अनजान बैलों को आराम से एक ही हल में जोत सकते हैं.....जबकि आपने देखा होगा कि बाड़े में बाहर से लाया गया नया बैल ,,,बाड़े के भीतर खड़े अन्य जानवरों की अपेक्षा अपने ही जाति के बैल को देखकर सबसे पहले फुन्कारा होगा,,मारने गया होगा...बकरी मुर्गी,कुत्ता बिल्ली से उसे कोई परहेज नहीं होता..किन्तु दो दिन बाद यही बैल ,,पहले वाले बैल के साथ ही घास चरता मिलेगा..और ये मित्रता स्थायी होती है..  अमूमन पहली  नजर में प्यार अथवा किसी के प्रति आकर्षण  सदा आपसे  विपरीत व्यक्तित्व   के लिए ही महसूस होता है किन्तु यकीन मानिए ये क्षणिक होता है...चंद मुलाकातों के पश्चात ही सारा खुमार उतरने लगता है.... आखिर आप आकर्षित ही इसलिए हुए थे क्योंकि आपने अपने से इतर कुछ नया देखा था,, ,वो देखा था जो आपके  व्यक्तित्व में नहीं था...

     अतः आकर्षण लाजिमी था.... किन्तु आखिर  वो आपके व्यक्तित्व के  विपरीत था,,, तो आप  उसके साथ सहज नहीं  रह पाये,,, ,परिणामस्वरूप अलगाव होता है... योनियों का यही दोष कई संबंधों को खिलने से पूर्व ही मुरझा देता है.... 

                                               यहीं से एक अन्य  महत्वपूर्ण सूत्र ये होता है कि भले ही कितने गुणों का मिलान पाया जाय,,, किन्तु अपने से २३ वें नक्षत्र को वैनाशिक नक्षत्र माना जाता है.... इसमें मिलान नहीं करना चाहिए.... ये सूत्र कई नए नए सिर मुंडवाए पंडितों के सिर के ऊपर से निकलता हुआ देखा है मैंने... 

                    ग्रह मैत्री को भी इसी प्रकार अष्टकूट मिलान में  एक  महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है....किन्तु भ्रमवश  अधिकतर पंडितों को मैंने राशि के स्वामियों द्वारा मैत्री चक्र का मिलान करते पाया है ,,,,जो क़ि पूर्णरूपेण अवैज्ञानिक है....हम जानते हैं कि ३० कोण की एक राशि 3 अंश और 20 कला के नौ चरणों अर्थात सवा दो नक्षत्रों  के (एक सम्पूर्ण नक्षत्र 13 अंश व 20 कला के तारामंडल के पथ के  माप का अधिकारी है)मिलन  का परिणाम  है.... ऐसे में कई बार हमें एक ही राशि विशेष को आपरेट करवाने वाले चार- चार ग्रह मिलने लगते हैं.....ऐसे में राशि स्वामी मात्र को ही मुख्य ग्रह मान लेना भला कहाँ की समझदारी है ,,,,जबकि अष्टकूट मिलान में तुम स्वयं नक्षत्र को आधार मान कर चल रहे हो भैय्या  ?   

            उदाहरण  के लिए आप रोहिणी नक्षत्र की कन्या व आद्रा नक्षत्र के वर का कुंडली मिलान करें तो लगभग २३ गुणों का मिलान होता है। परम्परागत रूप से वृष के स्वामी शुक्र व मिथुन के बुध नैसर्गिक मैत्री चक्र में परम मित्रता को प्राप्त होते हैं व इसी कारण मैत्री सूत्र के आधार पर मित्र द्विदाशक माने जाते हैं व भकूट दोष का निवारण स्वतः ही कर देते हैं.... बाकी गण व नाड़ी यहाँ उचित प्रकार से मिलती है। किन्तु हम भूल जाते हैं कि नक्षत्र स्वामियों में रोहिणी को भोगने का अधिकार चन्द्रमा के पास है वहीँ दूसरी ओर आद्रा का स्वामित्व राहु के पास है ,अब अपने मिलन मात्र से ग्रहण का निर्माण कर देने वाले ये दोनों ग्रह ,कुंडली मिलान में पास होने के बावजूद कैसे जीवन में अपने विचारों के मध्य सामंजस्य लाएंगे ,ये विचारणीय है     ,(आशा है प्रबुद्ध पाठक सहमत होंगे )   

                                          दोनों कुंडलियों में गुरु इस विषय में मुख्य किरदार होता है …ऐसे  में दोनों ही कुंडलियों में गुरु का प्रभावित होना शुभ रिज़ल्ट नहीं देता। शुक्र मंगल की युति जातक को शौक़ीन मिजाज बना देती है ,ऐसे में किसी एक कुंडली में ये समस्या हो व लग्नादि को गुरु आदि शुभ ग्रह का सपोर्ट न मिल रहा हो तो नेगेटिव परिणाम प्राप्त होते हैं। इसके अलावा बहुत से पहलु हैं जो कुंडली मिलान में ध्यान दिए जाने आवश्यक हैं..

... दो मिनट में मैगी तैयार हो सकती है पाठको किन्तु जीवन के निर्णय नहीं...(मुझे स्वयं कुंडली मिलान में एक घंटा लग जाता है ) अतः अगली बार आप अपने अथवा अपने किसी प्रिय के वैवाहिक जीवन का निर्णय ले रहे हैं तो कृपया योग्य ज्योतिषी की सलाह लेकर आगे बढ़ें.....पाठ के विषय में आपकी अमूल्य राय के इन्तजार में. .... …

सोमवार, 13 जनवरी 2020

किस देव् की उपासना करूँ

कई बार पाठकों ने प्रश्न किया है कि गुरुजी कौन से भगवान अधिक पावरफुल हैं,,मुझे किस देवता को अपना आराध्य मानना चाहिए,,,,,शास्त्र किसकी उपासना करता है...अब मेरे जैसे सनातनी वैदिक ब्राह्मण से इसका उत्तर पाने की उम्मीद करना यह पूछना हो गया कि जीने के लिए क्या जरूरी है...या राजमा अच्छी दाल है या मलका,,,,सेब अच्छा फल है कि केला...आप ही बताइए कि ये तुलनाएं कैसे संभव हैं,,,ऐसे ही भला देवताओं की तुलना कैसे संभव है,,,एक ही शक्ति है जो भिन्न भिन्न रूपों में पूजी जाती हैं,,,सब का स्त्रोत एक ही है..जिसका कोई आकार नही,,कोई रंग नही,,कोई व्याख्या नही..
          बात जब वेदों की आती है तो हम देखते हैं कि ऋग्वेद अधिकतर इंद्र की स्तुति से भरा हुआ है,,,तीन चौथाई से अधिक मंत्र इंद्र को समर्पित हैं,,,बाकी में अग्नि वरुण व सूर्य का जिक्र है.…यजुर्वेद में भी कमोबेश यही स्थिति देखने को मिलती है.…व बाकी के अन्य वेद भी इसी स्थिति से गुजरते दिखाई देते हैं..फिर समय आता है पुराणों का...जहां शक्तियों को रूप में देखा गया है,,,पुराण में शिव,,विष्णु,,,कृष्ण,,आदि साकार रूप उपस्थित हैं,,तो एनेर्जी के रूप में सूर्य व अग्नि उपस्थित हैं...बड़ी हैरानी है कि वेदों में अग्रपूजनीय होने वाले इंद्र पुराणों में उपेक्षित हो चले हैं.... बाद के पुराणों में तो उनकी छवि भी कुछ दोषपूर्ण होती चली गयी है..ऐसा क्यों हुआ मेरे पास जवाब नही.….आज के पूजा पद्धति में  हम कह सकते हैं कि लगभग इंद्र को भुला ही दिया गया है,,उनका जिक्र नही के बराबर ही होता है..किन्तु एक शक्ति ऐसी है जो जितना प्रभाव वेदकालीन दौर में रखती थी,,उतनी ही महत्ता उसे पुराणों में भी प्राप्त है,,व आज के कर्मकांडों में भी उन्होंने अपना महत्व बनाये रखा है,,,वो हैं अग्नि व सूर्य....इनमे भी प्रत्यक्ष दिखाई देने के कारण सूर्य का अपना महत्व है..वे बड़ी प्रतिष्ठा के साथ आकाश पटल पर कायम हैं,,,व ज्योतिष व संसार संबंधी बहुत से नियमो को संचालित करते हैं....ऐसे के सूर्य की उपासना बेहतर रिजल्ट देने में सक्षम है ऐसा मेरा मानना है....तो कहिये जय हो सूर्य महाराज की....आप सभी को नवरात्रे की शुभकामनाएं...भगवती आप सभी के परिवारों की रक्षक रहें..(आजकल बद्रीनाथ जी मे पाठ में व्यस्त हूँ अतः आप लोगों से संवाद नही बना पा रहा हूँ,,क्षमा करेंगे)

दशम का सूर्य

..******  दशम का सूर्य****..
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    पहले स्वास्थ्य ,,पश्चात कार्यालय की व्यस्तता के कारण बहुत समय से आप लोगों की सेवा में उपस्थित नहीं हो पाया ,,जिस हेतु क्षमा प्रार्थी हूँ .ज्योतिष निरंतर शोध का विषय है,,,आप पुराने सूत्रों पर कुंडली मारकर ,वर्तमान में उन सूत्रों को किसी कुंडली से फलित करने की कोशिश करेंगे ,तो गच्चा खाने की संभावनाएं अधिक प्रबल हो जाती हैं ..अतः सूत्रों को नए वातावरण में ,नए नजरिये से परिभाषित करना बेहद आवश्यक हो जाता है..... 
         ग्रहों के राजा सूर्य को लेकर अमूमन बहुत सी किवदंतियां व भ्रांतियां चलन में हैं ......कालपुरुष में ये लग्न में उच्च व पंचम में स्वराषि होकर बेहद सम्मान पाकर प्रभावी माना जाता है ,और अमूमन इसी सूत्र को लेकर फलित किया जाता है .......थोड़ा पीछे जाने का प्रयास कीजिये ,,,ज्योतिष का आरम्भ वैदिक राजतंत्र काल में हुआ है ..ये वो कालखंड था जब राजा का बेटा राजा होता था व सामान्यतः  जातक का जन्म ही उसके कुल को तय करता था .....बृहस्पति के रूप में ब्राह्मणो को सम्मान तो बहुत प्राप्त था ,किन्तु  परोक्ष रूप से सत्ता में उनका दखल नहीं था ...सीधे सीधे कहें तो अपने पालन पोषण के लिए गुरु स्वयं सूर्य पर निर्भर था  ...ऐसे में लग्न का सूर्य ये निर्धारित करने में सक्षम था कि जातक अपने पूर्वजों के सम्मान से पोषित होकर राजकुल में जन्म ले रहा है ,,,तथा पंचम का सूर्य आपकी कुल परंपरा को आगे ले जाने वाला है ....यहाँ शिक्षा ,,नेतृत्व ,,ज्ञान आदि के बहुत मायने नहीं थे ....किसी सामान्य कुल के सस्दस्य द्वारा बहुत बड़ा आंदोलन कर ,,राजतंत्र को पलटने के किस्से सामान्यतः नहीं मिलते हैं ...अतः सूर्य निर्विध्न रूप से अपनी पितृसत्तामक सत्ता को कायम करके चलता था ....कालान्तर में [द्वापर बीत जाने के बाद ]  हम बृहस्पति चाणक्य द्वारा नन्द सूर्य को सत्ताहीन करने का एक बड़ा उदाहरण पेश कर सकते हैं ,,ऐसे कई और उदाहरण मिल सकते हैं ...ये सूर्य के प्रभावहीन होने का समय काल था ..सूर्य स्वाभाविक रूप से पूर्व दिशा का स्वामी है ..सूर्य के कमजोर होते ही पूरब पर अन्य दिशाओं से आक्रमण बढ़ने लगे ...विशेष रूप से सूर्य के नैसर्गिक शत्रु शनि की पश्चिम दिशा से ऐसे आक्रमणों की अधिकता देखन में आती है ,,,वह यूनान से सिकंदर हो अथवा ब्रिटिश सेनाएं ...देश के विभाजन के बाद पश्चिम से किंचित राहत सूर्य को प्राप्त हुई तथा पूर्व तथा उत्तर के सपोर्ट से पुनः सूर्य को अपना सामार्ज्य स्थापित करने में सहायता प्राप्त हुईं .उत्तर से आये नेहरू व पूर्व से आये राजेंद्र प्रसाद जी के रूप में पूर्व स्थापित इस राष्ट्र को अपना संविधान प्राप्त हुआ ... किन्तु पश्चिम के इतने वर्षों के आक्रमण का फल ये हुआ की सूर्य अपना नैसर्गिक बल अथवा कहें कार्यप्रणाली भूल गया ..वह पश्चिम के क़दमों पर चलने लगा .....आज भी भारत की राजनीति को आप यूरोप ,,अमेरिका के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास करते देखेंगे अथवा पश्चिमी दिशा में बसे  पाकिस्तान के इर्द गिर्द ही इसे घूमता पाएंगे ...यहीं से सूर्य के कार्य करने के तरीके के अंतर आने लगा..धीरे धीरे भारत मे प्रजातंत्र मजबूत होने लगा व राजशाही का लगभग अंत हो गया,,,अब सूर्य तो राजा है,,राजशाही का अंत हुआ तो भला सूर्य स्वयं का वजूद कैसे स्थापित करता...अतः सूर्य राजतंत्र को त्याग राजनीति की ओर अग्रसर हुआ,,किन्तु एक राजा के रूप में नही,अपितु एक सेवक के रूप में..शनि का प्रभाव अभी तक सूर्य पर स्पष्ट देखा जा सकता है..जैसा कि ज्योतिष के जानकार जानते हैं कि शनि भृत्य(नौकर )का स्थान रखता है...ऐसे में जनसेवक कहलाने वाले नेता ही प्रजातंत्र के राजतंत्र में वास्तविक अधिकारी बन बैठे..सत्ता का केंद्र भी दिल्ली (पश्चिम) बन बैठा...ऐसे में सूर्य जो कि मेष में उच्च होते थे,,वे मेष के बदले मकर में बल पाने लगे..पाठकों को भली भांति ज्ञात है कि जो सम्मान मकर की संक्रांत को प्राप्त है वह मेष की संक्रांत को नही है..अतः लग्न व पंचम के सूर्य के मुकाबले दशम का सूर्य अधिक प्रभावी होने लगा...कुंडली विवेचन के दौरान नए अभ्यासी ज्योतिषियों बंधुओं को देखने मे आएगा कि दशम का सूर्य परोक्ष व अपरोक्ष रूप से सरकार से जातक को जोड़ता आया है..अगर इसी सूर्य को शनि का बल भी प्राप्त हो रहा हो,,तो छत्रभंग का निर्माण करते हुए यह तय करता है कि यदि जातक परिवार अथवा  पिता से दूर रह पाएगा तो सत्ता में सीधे पैठ बना पाने के सक्षम होगा,,जितना जातक अपने भीतर भृत्य(सेवक) होने की भावना प्रबल करेगा,,उतनी तीव्रता से वह सत्ता की शक्ति प्राप्त करेगा...जितना अधिक वह अपने नैसर्गिक राजा होने के भाव को प्रदर्शित करेगा,,सत्ता व राजतंत्र से दूर होता जाएगा....इसी अनुपात में  हम देखें तो पंचम पिता की हानि है..यह दशम से अष्ठम पड़ने वाला भाव है..पिता के लिए दुर्योग उत्पन करने वाला...ऐसे में पंचम का सूर्य पिता के साथ कोई बड़ी दुर्घटना तय कर देता है,,किन्तु स्वयं का भाव होने से ये भी देखने मे आता है कि जातक पिता के विभागों में पिता के बाद जुड़ जाता है..इस सूर्य पर किसी पाप ग्रह का प्रभाव हो तो पिता के साथ कई बार बड़ी दुर्घटनाएं भी होती देखी गयी हैं..
           दशम से किसी भी प्रकार सूर्य का संबंध बन रहा हो तो सूर्य का रत्न माणिक धारण करने से बचना चाहिए..इसका प्रभाव शनि को प्रभावित करता है,,परिणास्वरूप जो लाभ शनि के भाव दशम में बैठा सूर्य दे रहा होता है वह गड़बड़ाने लगता है....पंचम में सूर्य हो तो माणिक धारण करना शुभ फलदायी होता है..
        लेख के प्रति आपकी अमूल्य राय से अवश्य अवगत कराएं..शीघ्र नए लेख के साथ प्रस्तुत होने के वचन के साथ विदा लेते हुए आप सभी सुधि पाठकों के श्री चरणों मे मेरा प्रणाम पहुंचे..

क्यों प्रभावित है रोजगार

*** ---क्यों प्रभावित है रोजगार..**
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       कर्म भाव से संबंधित सिद्धांत बहुत  से नियमों के अधीन होकर कार्य करते हैं..विवाह हेतु कुंडली मिलान करते समय ,जिम्मेदार गणक के लिए यह भी एक विशेष पहलू है,जिसे ध्यान में रखना अति आवश्यक है..सामामयतः देखा गया है कि जातक अपने कर्मेश(दशम भाव अधिपति),अथवा उसे प्रभावित कर रहे ग्रह के सहयोग से ही अपने कार्य व्यवसाय में सफलता पाता है..किन्तु यहां ध्यान दिए जाने वाला सूत्र यह है कि  जातक के जीवनसाथी का भाव अर्थात सप्तमेश अमूमन उसके नवमेश का शत्रु होता है..कितना अचंभा है कि विवाह हेतु सप्तम भाव को पुष्ट करने हेतु षोडशवर्ग के जिस भाव ,नवांश को इतना अधिक महत्व दिया जाता है,,जन्म लग्न चक्र में ये दोनों (सप्तमेश व नवमेश) सामान्यतः एक दूसरे के सहयोगी नही होते हैं...वहीं दूसरी ओर सप्तमेश व दशमेश(कर्म भाव का अधिपति) सामान्यतः एक दूजे को सहयोग करने को तैयार होते हैं...क्या यही कारण होता होगा कि जिन जातकों ने अपने जीवन साथी को अपने कार्यालय अथवा कार्य व्यवसाय में अधिक इन्वॉल्व कराया,,उन्होंने सफलता की सीढ़ियां सहजता से लांघी..और जिन्होंने जीवन साथी को भाग्य का पूरक मानकर ,,घर मे बैठाया,,,उन्हें किंचित संघर्ष अधिक सहना पड़ा...
             सामान्यतः मेरे देखने मे आया है कि जातक के विवाह के बाद जातक की दशमांश कुंडली के आपरेट करने के तरीक़े में आश्चर्यजनक बदलाव आने लगते हैं...ऐसे में कई बार प्रश्न आता है कि मेरा कार्य व्यवसाय ठीक से नही चल रहा,, अथवा मेरे धंधे में बरकत रुक गयी है,,,जबकि जातक की ग्रह दशा उसके अनुकूल चल रही होती है,,फौरी तौर पर देखने मे किसी प्रकार की कोई समस्या कुंडली मे नही दिखाई दे रही होती...ऐसे में जातक के जीवन साथी की कुंडली देखना आवश्यक हो जाता है...बहुत बार देखने मे आता है कि धर्मपत्नी जी के सप्तमेश को नेगेटिव रूप से प्रभावित कर रहे ग्रह की दशा अंतर्दशा में ,जातक के अपने धंधे प्रभावित होने लगते हैं,, जबकि उसकी अपनी दशाएं बहुत अधिक विपरीत संकेत नही दे रही होती हैं...ऐसे में अगर ज्योतिषी जातक के जीवन साथी की कुंडली प्राप्त नही कर पाता,, तो उसका संशय स्वयं की गणनाओं पर होने लगता है... वह अपने सूत्रों को बार बार खंगालता है,,,बार बार अपने क्लाइंट के लिए किए जा रहे उपायों में बदलाव करता है,,किन्तु मनमाफिक रिजल्ट नही पाता...परिणामस्वरूप क्लाइंट व ज्योतिषी,,दोनो का विश्वास ज्योतिष से डगमगाने लगता है..
     पुरुष व स्त्री विवाह के पश्चात अर्धनारेश्वर का रूप माने गए हैं...ऐसा संभव नही कि यदि स्त्री की कुंडली मे सप्तमेश गोचरवश पीड़ित हो रहा हो तो पुरूष का जीवन सहजता से चल रहा हो..ऐसा होना कतई संभव नही ...अतः ज्योतिष बंधुओं को चाहिए कि जातक के कर्म भाव को फलित करने से पूर्व ,,एक दृष्टि जातक के जीवनसाथी की कुंडली पर भी डाल लें..तब ये प्रश्न करने की आवश्यकता नही होगी कि जातक की कुंडली मे कोई समस्या पकड़ में नही आ रही,,तब भी उसका व्यवसाय क्यों चौपट हुआ जा रहा है...

कुम्भ लग्न में कौन सा रत्न धारण करें

**** -- कुम्भ लग्न में कौन सा रत्न --**
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                कल मुझे एक अनजान ज्योतिषी (?) का फोन आया,,वो जानना चाहता था कि कुछ समय पूर्व मैंने कुम्भ लग्न की एक कुंडली की विवेचना के दौरान एक क्लाइंट को कोई भी रत्न न पहनने की सलाह दी थी...संयोग से वह क्लाइंट इन ज्योतिष महोदय का भी परिचित है तो कभी कहीं किसी बैठक में दोनों की चर्चा चल पड़ी...क्लाइंट ने बताया कि उसे कोई भी रत्न न पहनने की सलाह मेरे द्वारा मिली है,,तो ज्योतिष महोदय का प्रश्न था कि कौन ऐसा मूर्ख पंडित है जो ऐसी सलाह दे रहा है,,और बाकायदा वो ये बात फोन पर मुझे कह रहे थे....दो मिनट की चर्चा के दौरान ही मेरे लिए ये भांपना काफी था कि ये फ़ेसबुक विश्वविद्यालय व व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से पढ़े हुए वो शौकिया सज्जन हैं ,,जिनके पुस्तकालय में 50 रुपये की आओ ज्योतिष सीखें ,नामक पुस्तक रखी होगी,,और उसी बूते पर ये महाशय इतना फड़फड़ा रहे हैं...नित्य ही ऐसे कई शौकिया ज्योतिषी देखता ही रहता हूँ...पर आश्चर्य होता है  जब वो अपनी उटपटांग थिओरी उस इंसान पर लादते हैं जो ज्योतिष का विधिवत आचार्य होकर पिछले पंद्रह सत्रह वर्षों से पचासों विद्यार्थियों को ज्योतिष की शिक्षा दे चुका है,,,अनगिनत लेख दे चुका है....जिसकी सलाह से लाभान्वित होकर अनेकों क्लाइंट देश विदेश से समय समय पर आभार व्यक्त करते रहे हैं..अब समय का अभाव कहें या हिम्मत हारना,,किन्तु ऐसे लोगों से बहस की मेरी कोई इच्छा नही होती..क्यों समय खपाया जाय..खैर जाने दीजिए....
           कुम्भ लग्न पर अपने ब्लॉग में पूर्व में भी चर्चा कर चुका हूं...ये शुक्र को मास्टर प्लेनेट के रूप में आपरेट करने वाला लग्न है..अब शुक्र जैसा कि आप सुधि पाठक जानते हैं भौतिक सुख सुविधा प्रदान करने वाला ग्रह है तथा भौतिक सुख सुविधाओं की प्राप्ति के लिए धनः की आवश्यकता होती है..धनः ,,जैसा कि ज्योतिष के जिज्ञासु जानते हैं,,कुम्भ लग्न में ये गुरु के अधीन का विषय होता है..और सामान्य मैत्री चक्र में गुरु व शुक्र नितांत शत्रु ग्रह माने गए हैं..अब भला अपने भावों से प्राप्त धनः(?) को गुरु क्योंकर शुक्र के हवाले करने लगा..
             वास्तव में धनः का अभिप्राय जो लोग करेंसी से लगाते हैं,,उनके गच्चा खाने का चांस अधिक होता है..धनः एक विस्तृत विषय है जिसके अधीन बहुत से कारक होते हैं..हर ग्रह के लिए धनः का अभिप्राय भिन्न होता है...मंगल के लिए धनः का अर्थ भूमि है,,,बुध के लिए इसे पैसे के रूप में देखा जाता है,,,गुरु के लिए ये मानसिक शांति को अभिरूपित करने वाला विषय है..सूर्य के लिए ये सत्ता की प्राप्ति है व शनि के लिए विषय विशेष में दक्षता हासिल करना ही धनवान होना है..
                  जिन सज्जन का जिक्र ऊपर किया था मैंने,,वे नगर निगम में इंस्पेक्टर हैं,,,जिनके पास एक  सुंदर धर्मपत्नी जी व पुत्रियों का भरा पूरा संसार है..शानदार मकान व वाहन की प्राप्ति है...कुम्भ लग्न की कुंडली मे ,,योगकारक शुक्र पंचम त्रिकोण में बैठकर पूर्ण बली है ,,व नवांश में भी बेहद सकारात्मक है...इस सकारात्मकता का परिणाम हम जातक के सुखी जीवन के रूप में देख सकते हैं.....अब ज्योतिष महोदय उन्हें डायमंड पहनाना चाहते हैं....मैंने पूछा मित्रवर,,इससे क्या हासिल होगा...डायमंड से आप क्या बदलाव लाना चाहते हैं..तो महाशय बोलते हैं कि इससे इनकी लक्सरी में बढ़ोतरी होगी....अरे भाई,,लक्सरी में बढ़ोतरी के लिए स्वाभाविक रूप से धनः चाहिए....जो जातक सरकारी नौकरी में है,,उसे अचानक धनः कैसे प्राप्त होने वाला है भला??उसे तो सालाना आधार पर फिक्स इंक्रीमेंट आदि प्राप्त होने हैं...हाँ वो कोई व्यापारी होता,,अम्बानी अडानी जैसा,,तो हम उसके व्यापार में अभूतपूर्व उछाल की कामना कर सकते थे...किन्तु एक सरकारी नौकर जो महीने की पगार पर निर्भर है,,वो भला कहाँ से अधिक धनः प्राप्त करेगा...स्वाभाविक रूप से आप उसे ऊपरी कमाई के लिए उकसाना चाहते हैं...शानदार बीवी के अलावा आप उसे विवाहोत्तर संबंधों की ओर धकेलना चाहते हैं....एक जातक जो समाज मे मान सम्मान के साथ जी रहा है,,आप उसे अधिक भोगी प्रवृति की ओर धकेलना चाहते हैं...एक मिठाई जो हलवाई द्वारा पहले ही एक संतुलित आकार व स्वाद प्राप्त कर चुकी है,,आप उसमें और मीठा डालकर उसका बेड़ा गर्क करना चाह रहे हैं..
         कुम्भ एक ऐसा लग्न है,,जिसमे रत्न धारण हेतु बहुत से समीकरणों को ध्यान में रखना पड़ता है..इसमें गलती की कतई गुंजाइश नही हो सकती...यहां धनः को मजबूत करने के लिए यदि आप जातक को पुखराज धारण करा रहे हैं,,तो वास्तव में आप उसे वैराग्य के लिए उकसा रहे हैं,,,पारिवार की ओर से लापरवाह कर रहे हैं..सामान्यतः आप कुम्भ लग्न के जातकों को धीर गंभीर,,,सेल्फ ओरिएंटेड ,,रिज़र्व नेचर का,,, कम बोलने बतियाने वाला,,एक शांत आचार व्यवहार का जातक देखते हैं....कारण वही है,,आय व धनः दोनो  का गुरु से प्रभावित होना...और गुरु के लिए धनः का अर्थ मानसिक शांति है..यही कारण है कि गुरु की मीन राशि मे शत्रु होकर भी शुक्र उचत्व को प्राप्त होते हैं...भोग विलास को लगाम लगती है व वह सात्विकता पाता है,,वहीं मित्र बुध की राशि कन्या में शुक्र नीच का प्रभाव देने लगता है..शुक्र सबसे काइयां ग्रह है,,सबसे शातिर.... इसी कारण एक आंख वाला ग्रह है...सामान्य व्यवहार में एक आंख बंद करना,,शातिरपने की निशानी माना गया है...देखिए न जिस गुरु से खुलेआम दुश्मनी निभाता है,,उसके घर (मीन) में आते ही चोला बदल संत बन जाता है...इससे अधिक शातिरपन भला और कहां देखने को मिल सकता है...
          रत्नों में बहुत शक्ति होती है मित्रों....ये जातक को अर्श व फर्श दोनो पर ले जा सकते हैं....अतः मात्र सुनी सुनाई बातों कि केंद्र त्रिकोण का रत्न धारण करना शुभ होता है,,इन बातों से परहेज करना चाहिए..ये बहुत बेसिक बातें हैं जो समझाने के लिए पुस्तकों में लिखी होती हैं..किन्तु इसका अर्थ गूढ़ होता है...बुखार में पैरासिटामोल खाया जाता है,,ये अमूमन हर कोई जानता है,,किन्तु मरीज की आयु देखकर इसकी मियाद घटाई बढ़ाई जाती है,,,,कई रोगों में पैरासिटामोल से परहेज किया जाता है,,इसकी अधिकता लिवर को खराब कर सकती है..ये बात एक चिकित्सक बेहतर तरीके से जानता है,,इसी कारण बिना मरीज देखे,,दवा नही लिखता..इसी प्रकार फर्जी पुस्तकें पढ़कर ,,रत्न संबधी सलाह देने से बचना चाहिए...ज्योतिष आपके लिए शौक का विषय हो सकता है किंतु जातक का जीवन आपकी एक गलत सलाह से बर्बाद हो सकता है..अतः बेशक इसका शौकिया अध्ययन कीजिये,,किन्तु यदि आप ज्योतिष के विधिवत विद्यार्थी नही हैं तो आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि औरों को सलाह देने से बाज आइये..
         अपने विचारों से अवश्य अवगत कराइये...नववर्ष आपके लिए भगवती के आशीर्वाद से नई सौगातों से भरपूर हो,,ऐसी कामना के साथ आप सभी पाठकों के श्री चरणों मे मेरा प्रणाम पहुंचे.... सादर प्रणाम..

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2019

कृष्ण

...(पूर्व में यह लेख दो भागों में प्रकाशित हुआ था,,पाठकों का आग्रह था कि इसे एक ही जगह उपलब्ध कराएं ,जिसे लय बनी रहे...अतः दोनो भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ)

******  कृष्ण का वचन*****
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    घोड़ों की रास स्वयं मधुसूधन के हाथों में थी.....मुंह से सफेद फेंन गिराती अश्व टोली इस बात से भलीभांति वाकिफ थी कि ब्रह्मांड के सर्वोत्तम सारथी के हाथ जब भी रथ की रास आती है,,तो समुद्र को भी अपना स्थान त्यागना होता है.......सूर्य की किरणें भी केशव के रथ की गति के आगे नतमस्तक होती हैं....वायु के दूत भी उस रथ की गति से पराजित हो,,स्वयं को लाचार पाते हैं,,,..
             सामान्यतः तीव्र गति से रथ भगाने के अभ्यस्त कृष्ण के अश्व आज पहली बार कॄष्ण के शब्दों की ललकार को  अपनी पीठ पर चाबुक के स्पर्श के समान महसूस कर रहे हैं... पशु मूक सही,,अपनी भावनाओं को बता पाने में असमर्थ सही,,, किन्तु स्वामी के नेत्रों की भाषा को सहज समझता है....उसके हाथों के स्पर्श के स्पंदन की कहानी जानता है....कृष्ण के हृदय की धौंकनी मानो नगाड़े की गूंज बन अश्वों को संकेत दे रही थी कि आज दौड़ निर्णायक है....आज स्वामी का सम्मान दांव पर है...आज द्रौपदी को दिए वचन को निभाने की घड़ी है....आज कृष्ण के वचन की कीमत तय   होनी है....और कृष्ण को निकट से जानने वाले सभी जानते हैं कि कालांतर में अर्जुन को दिए अपने वचन के निर्वाह हेतु,,,प्रकृति के सिद्धान्त के विपरीत जाकर भी वासुदेव ने सूर्य पर ग्रहण तक लगाया है...और आज प्रश्न एक स्त्री की अस्मिता का है....उसके अभिमान का है...
       द्रौपदी के भेजे दूत से कल रात्रि ही कृष्ण को कुरु सभा मे होने वाले चौसर के खेल का संकेत मिल चुका है....और संदेश प्राप्त होते ही कृष्ण का मन अनहोनियों की आशंका से उन्हें चौकन्ना कर चुका है....बिना एक पल गंवाएं तब से कृष्ण कुरु सभा पहुंचने को छटपटा उठे हैं,,रात्रि में ही उन्होंने रथ को हस्तिनापुर के मार्ग पर डाल दिया है...
           कृष्ण के होठों की ललकार ने जैसे पीठ पर पुनः चाबुक की चोट की हो....जानवर ने स्वामी के हृदय की वेदना को महसूस किया,और अपना सर्वस्व देकर भी आज ऋणमुक्त होने का संकल्प लिया...घोड़ों के पैरों में ज्यों बिजली कौंधती हो....पदचापों की गड़गड़ाहट कुरु साम्राज्य के समाप्ति की घोषणा में मानो ,,विजयी ढोल नाद की भांति तांडव करती हो....
            इंद्रप्रस्थ में पांडवों के समारोह में अपमानित दुर्योधन के नेत्रों की ज्वाला ,भविष्य में क्या परिणाम प्रस्तुत कर सकती है,,ये अंदाजा लगाना कृष्ण के लिए कोई बड़ा भेद नही था.....राजा युधिष्ठर चौसर के जुए के लिए हामी भर देंगे,, ये विश्वास कर पाना कठिन था.....किन्तु कहते हैं न कि "प्रभु जाको दारुण दुख दीना,,,ताकि मति पहले हर लीना".......युधिष्ठर तो अपना विवेक यह प्रस्ताव स्वीकार करते ही त्याग चुके हैं......किन्तु दुर्योधन के पास तो कभी विवेक रहा ही नही है...और  अपमान की आग में झुलसता हुआ विवेकहीन दुर्योधन ,,,,अपने बल के अहंकार व पांडवों को लज्जित करने की अपनी जिद में मानवता के समस्त नियम  बिसरा सकता है ,,इसमे कृष्ण को कोई संदेह नही...
                  रोहिणी नक्षत्र के अधिपति चंद्रदेव ने ,,मनुष्य लीला करते अपने स्वामी का पथ प्रदर्शन करने हेतु स्वयं आगे बढ़कर आज अपनी निशा यात्रा का संचालन किया...अचानक से जंगल की शांति को भंग करते हुए ,,मयूरों ने शोर मचाना आरम्भ कर दिया...अपने मार्ग से गुजरने वाले कृष्ण के घोड़ों की पदचाप ,कोसों दूर राह मे रात्री विश्राम करते नीले नागान्तकों के लिए,,, माथे पर मोर मुकुट के रूप में ब्रह्मांड का ताज धारण करने वाले चक्रवर्ती के आगमन की घोषणा है....ऐसा चक्रधारी जिसके मोरमुकुट के आगे इन्द्र का सिंहासन तुच्छ जान पड़ता है...जिसके गले मे पड़ी मोती की माला का एक एकलौता मोती ही,,कुबेर के खजाने को लज्जित करने में सक्षम है....और जिसके पीताम्बर की आभा स्वर्ग की अप्सराओं के वैभव तक को क्षीण कर देती है......
       कृष्ण के ललाट पर तनाव विद्युत तरंगों के समान रह रह कर  चिंगारियां में परिवर्तित हो रहा है...प्रकृति इस तनाव का भार झेलने की अभ्यस्त नही है....तनाव की रेखा तो केशव के ललाट पर तब नही उभरी,,जब कालिया नाग का मानमर्दन उन्होंने किया...इन्द्र की सत्ता को चुनौती देते हुए गोवर्धन उठा लेने वाले कृष्ण के अधरों पर तब भी स्मित ही था..फिर आज ये अनहोनी क्यों?? इस तनाव  का भार वहन करने के लिए शेषनाग ने  अपने फन पर टिकी वसुंधरा को व्यवस्थित किया....वाराह ने अपने नुकीले खुरों पर अपना आधिपत्य पुनः जांचा....निकट भविष्य में ब्रह्मांड को अचंभित कर देने  वाली कोई घटना अपनी रूपरेखा रच रही है,,इसका आभास धरती के इन दोनो भारवाहकों को सहज ही हो गया है...
   अश्वों के खुरों के कोने लगातार दौड़ते रहने से अब रक्ताभ होने लगे हैं,,किन्तु उनकी गति में कोई स्थिलता नही दिखाई पड़ती....कृष्ण के हृदय की ज्वाला,, स्वयं अश्वों के नेत्रों से रक्तपुंज के रूप में टपकने को आतुर है...नीले वन पक्षी कृष्ण की देह के ताप से विचलित हो रहे हैं... उनके फड़फड़ाते पंख रात्रि के घने वन में अजीब सा भयभीत कर देने वाला शोर उत्पन कर रहे हैं....नीले मयूरों का रात्रि में जागना शुभ संकेत नही है...अष्ठम कालरात्रि के अधीष्ट ,,,नीले रंग की आभा वाले सांवले कृष्ण और नीले नागान्तकों का समवेत कोप मानो आज कुरुवंश पर लगने वाले ग्रहण का संकेत है...
                        प्रातः की पहली किरण के साथ ही कृष्ण ने हस्तिनापुर की सीमा का स्पर्श कर लिया....
                 कुरु सभा मे लगती एक एक बाजी ,,सभ्य समाज के मुंह पर एक एक करारे तमाचे के समान थी....ईर्ष्या जब जब अपनी सीमाओं का अतिक्रमण  करती है ,,तब तब मनुष्य के भीतर बसा जानवर बाहर आने लगता है....गिरने की कोई सीमा नही होती...आप महानता का ,,,सहृदय होने का,,सभ्य होने का एक पैमाना तय कर सकते हैं,,किन्तु मनुष्य की नीचता को मापने के कोई पैमाना नही होता....इसकी कोई सीमा नही होती....बड़े भाई की जिस स्त्री से अपनी माता के समान व्यवहार रखना चाहिए,,उस पांचाली को भरी सभा मे निर्वस्त्र करने का आदेश देने में दुर्योधन को किंचित संकोच नही हुआ...
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अपने भवन में कृष्ण की राह देखती द्रौपदी को ज्योंही  प्रतिहारी द्वारा उसे चौसर में हार जाने की सूचना प्राप्त हुई,,उसका हृदय एक अनहोनी आशंका से ग्रसित हो गया...कृष्ण की अभी कोई सूचना नही पहुंची,, पता नही कृष्ण तक द्रौपदी का संदेश ही पहुंचा या नही....और द्वारका से यहां पहुंचने में कितना समय लगता है,,,इन प्रश्नों के उत्तर द्रौपदी के पास नही थे..
             बेबसी ने अश्रुओं का रूप ले लिया...किन्तु पलकों के कोनों पर जमा पानी,,,आत्मसमान का रूप ले,,स्वयं से विद्रोह कर उठा...इतिहास साक्षी है कि किसी  स्त्री के नेत्रों से जब भी बेबसी के अश्रु बहे हैं,, बड़े बड़े साम्राज्य इसकी भेंट चढ़े हैं..अजेय रावण अपनी लंका सहित इस ज्वाला में होम हुआ है...सती के देह त्याग का परिणाम सम्पूर्ण विश्व को नाश के कगार पर ले गया था...देवकी के नेत्रों की गंगा में डूबकर मथुरा का कंस साम्राज्य खंड खंड बिखर चुका है,.. अहिल्या के अपमान का परिणाम इंद्र को चुकाना पड़ा....नियति क्या रचे बैठी है ये कृष्ण के सिवा कोई नही जानता...अपने अनुजों सहित अपनी स्त्री को जुए के दांव में हार जाने वाले युधिष्ठिर को इतिहास भले ही धर्मराज के रूप में याद रखे,,किन्तु द्रौपदी की दृष्टि में आज युधिष्ठिर का स्थान बहुत निम्न हो गया है..
                  दुर्योधन के आदेश पर दुशासन पांचाली को केशों से घसीटकर ,,कुरु सभा को अपनी बलिष्ट भुजाओं का परिचय दे चुका है..अपमान से छटपटाई निरीह स्त्री के वस्त्रों का एक छोर अपने पैरों से दबाए ,एक वीर अपनी वीरता का प्रदर्शन कर रहा है.... संसार मे वीरता के नया अध्याय लिखा जा रहा है,,,इतिहास पौरुषत्व की नवीन व्याख्या देख रहा है..
         आरंभ से ही स्त्री को सांवन्तवादी दृष्टि से देखने की मनोवृत्ति रही है...संसार अनेकों ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है...स्त्री उपभोग की वस्तु है ,,इस कुविचार से बड़े से बड़े चरित्र भी अछूते नही रहे...संसार का ये अटल सिद्धांत है कि भले ही पुरुष कितनी ही स्त्रियों का भोग करे,,किन्तु स्त्री एक से अधिक पुरुष को नही वर सकती...द्रौपदी ने पुरुषों की इस वर्चस्वता को चुनौती दी है..वह पांच वरों को धारण करने वाली पांचाली है..और पुरुष प्रधान समाज मे ऐसा दुस्साहस करने का दंड स्त्री को अपना सम्मान देकर चुकाना चाहिए,,,जाने अनजाने इस विचार के पक्षधर इस सभा मे बैठे सभी वीर हैं...आदर्शवाद की व्याख्या करते अपने अनेक नायकों को इतिहास ने हजारों बार मुंह के बल गिरते देखा है.....सभा मे गंगापुत्र भीष्म,,आचार्य द्रोण,,,महाबली कर्ण,,, नीतिपुरुष विदुर,,कृपाचार्य सहित उस कालखंड के उत्तम पुरुष विद्यमान है...सबकी अपनी अपनी विवशताएँ हो सकना संभव हैं,,सबके संस्कार भिन्न होना संभव हैं,,,.किन्तु सबके भीतर एक विचार समान रूप से विद्यमान है,,,जो सभी को एक सूत्र से बांधता है,,वो है मिथ्या पुरुषवाद..सभी के हृदय में एक टीस सदा से उन्हें सालती आयी है कि द्रौपदी ने पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देने का साहस किया है,,और उसे इसका दंड मिलना चाहिए..
          जिस क्षण भर में आपकी महानता का पैमाना तय होता है,,जो क्षण आपको मिथ्या पुरुषवाद के अहंकार की भावना से काटकर पुरुषों में उत्तम स्थान प्रदान करता है,,,जिस क्षण आप ब्रह्मांड में एक नया आदर्श प्रस्तुत कर ,स्वयं को एक वास्तविक नायक घोषित करते  हैं,, वह यही एक क्षण मात्र होता है....जब जबर के जुल्म के विरोध में कोई दर्शक दीर्घा से आगे निकल अधर्म को अधर्म कहने का साहस करता है..जब कोई सबल का विरोध कर निर्बल का सहायक बनता है,,,और वास्तविक नायक कहलाता है..और इसी एक क्षण में संसार के श्रेष्ठ नायक किरदार अपना कर्तव्य निभाने में चूक गए..वे दुर्योधन का विरोध करने से चूक गए...एक स्त्री  की मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को लांघने का दुस्साहस कर बैठे..आदर्शवाद की मर्यादा को तार तार करने हेतु दुशासन के हाथ द्रौपदी के वस्त्रों की ओर बड़े... सभा द्रौपदी को उस अवस्था मे देखने का मोह नही त्याग सकी,, जिस रूप में स्त्री को उसका पुत्र व स्वामी ही देख पाए हैं..राजाओं में श्रेष्ठ स्थान रखने वाले राजा द्रुपद की राजकन्या,,,,संसार के श्रेष्ठ महारथियों की अर्धांगिनी,,,आज अपनी अस्मिता की रक्षा में असमर्थ है.... जिस पुरुषप्रधान समाज ने स्त्री के लिए अस्मिता के मापदंड तय किया हैं,,,उसी अस्मिता के पहरुए आज उसके सम्मान को निर्वस्त्र करने पर आमादा हैं....द्रौपदी को आज ज्ञात हुआ कि संसार मे स्त्रियों का एक ही स्थान है,,,एक ही गति है.....भले ही उसका जन्म किसी राजपरिवार में हो अथवा किसी निम्न कुल में .....किन्तु स्त्री की सदा से एक ही जाति होती आयी है,,वह जाति स्त्री होना है,,और इससे मुक्ति नही पाई जा सकती,,,चाहे उसका जन्म वैदेही के रूप में हो अथवा द्रौपदी के रूप में....
         किन्तु अनहोनियों होती हैं....असंभव संभव होता है,,,,कश्ती उस भंवर से भी निकलती है,,जिस भंवर से निकलने की आशा स्वयं मल्लाह को भी नही होती....ईश्वर ऐसी रचनाएं करता है....देवता ऐसा संभव करते हैं..हर ओर से निराश होकर भी अंत मे हृदय में एक दीपक आशा की एक क्षीण सी किरण जलाए रखता है,,,वह है कृष्ण का नाम....इस नाम का आधार द्रौपदी ने कभी नही त्यागा....नही,, कृष्ण हैं तो द्रौपदी का सम्मान जीवित है...भक्त है तो भगवान है....भक्त सदा भक्त  है.....स्वयं को प्रत्यक्ष भगवान को करना होता है...अपनी शक्ति का परिचय देना होता है....आज द्रौपदी की नही,,एक भक्त की अस्मिता दांव पर है मधुसूदन.....आज तुम्हारा अस्तित्व दांव पर है गोवर्धन....आज तुम्हारे भक्त प्रेम की परीक्षा है केशव......
                 श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी,, जय नाथ नारायन वासुदेव.....इस मंत्र का जाप सदा पांचाली ने किया है....कृष्ण पर उसकी अटूट श्रद्धा रही है....छद्म वीरों के इस संसार मे केशव का नाम ही एक अबला का सहारा बनता रहा है,,बनता रहेगा..हे नाथ,,रक्षा...रक्षा....
                 द्रौपदी के वस्त्र का एक सिरा अपने पैरों से दबाए,दुशाशन के हाथ उसके शरीर से वस्त्र खींचने को बढ़े...वस्त्र का दूसरा सिरा थामे पांचाली,,अपने नेत्रों को भींचे,,हृदय में गोविंद गोविंद पुकार रही है..यह भक्त की वह करुणामयी पुकार है,,जिस पर शेषनाग की शैय्या करते ईश्वर की तंद्रा भी टूटती है...समाधि में बैठे शिव भी जिस करुण पुकार के कारण विचलित हो उठते हैं.....हृदय से उठी यह उस अखंड विश्वास की पुकार है,,जिसका आधार लेकर सृष्टि कायम है..जिस विश्वास पर ब्रह्मांड की गतियां कायम हैं..जो विश्वास मनुष्य को अपने आराध्य के साक्षात दर्शन कराता है...
                        दुःशाशन ने आगे बढ़कर द्रौपदी के वस्त्रों को उसके शरीर से खींचना आरम्भ किया....पांडव लज्जा से सिर झुकाए बैठे हैं...बाकी सभा नीचता से अपनी गिद्ध दृष्टि पांचाली की देह पर लगाए बैठी है..दुर्योधन ने उत्तेजित होकर अपनी जंघा पर हाथ मारा....दुशासन ने द्रौपदी के बाहरी वस्त्र को खींचकर उसके शरीर से अलग निकाल फेंका...सभा सीत्कार से भर उठी..वीर दुशाशन के हाथ अधोवस्त्रों की ओर बढ़े....द्रौपदी का मन परमहंसों की उस अवस्था तक पहुंच गया है,,जहां उसके हृदय में कृष्ण के सिवा कुछ दृश्य नही,,,कानो में केशव केशव के सिवा कोई ध्वनि नही,,जिव्हा पर हे गोविंद हे गोविंद के सिवा कोई पुकार नही.....वस्त्रों से द्रौपदी का ध्यान हट चुका है,,दोनो हाथ जोड़े भक्त बस प्रभु का आह्वान कर रहा है..
                          दुशासन ने द्रौपदी के अंगवस्त्र पर हाथ बढ़ाया ही था कि उसी क्षण सम्पूर्ण कुरुसभा एक प्रचंड ध्वनि से गूंज उठी..सम्पूर्ण ब्रह्मांड को बींधती इस ध्वनि की तीव्रता ने मानो सब कुछ शून्य कर दिया हो..कुरुमहल की धरती प्रलय के कंपन से थरथरा उठी...सभा मे उपस्थित वीरों का तेज बुझ गया...दुशाशन सहित अनेकों महारथी अपने  कर्णों पर हाथ धरे चेतनाशून्य हो उठे..धरती डगमगा उठी....शेषनाग ने अपने फन को झटक कर होने वाली घटना के लिए स्वयं को सचेत किया,,,शिव ने डगमगाते कैलाश को पुनः अपने प्रभाव से स्थिर किया,....सर्वप्रथम कुन्तीनन्दन अर्जुन ने इस ध्वनि को पहचाना....उस ध्वनि को ,जिससे  संसार का हर महारथी परिचित है ....जिस ध्वनि के आगे ब्रह्मांड शीश नवाता है..वो ध्वनि जो संसार मे विरलतम है...जिस ध्वनि की गूंज वीरों का तेज हर उन्हें नपुंसक बनाने का सामर्थ्य रखती है....ये कृष्ण के पांचजन्य की गूंज है....इस शंख को वासुदेव धारण करते हैं..ये द्वारिकाधीश के रूप में ब्रह्मांड के स्वामी के आगमन की घोषणा है.....ये उस चक्रपाणी के आगमन का संदेश है,,जिसकी वीरता के आगे संसार नतमस्तक है...
                                 वासुदेव महल प्रांगण में प्रवेश कर चुके हैं....प्रचंड ज्वाला में धधकते कृष्ण ने अपने आगमन की हुंकार करी...पांचजन्य संसार का सर्वश्रेष्ठ ध्वनि शंख है,,जिसे संसार का सर्वोत्तम महारथी धारण करता है..चलते रथ से कूद कर कृष्ण द्युत सभा की ओर भागे...जब तक कुरुसभा पांचजन्य के प्रभाव से स्थिर होती,,सम्पूर्ण कुरुमहल कृष्ण के तेज से स्तम्भित हो उठा..क्षण भर में पासा पलट गया....भगवान ने धरती की गति को मानो स्थिर कर दिया हो....कृष्ण ने अपना पीतांबर द्रौपदी के कांधे पर फैला दिया...ये वो पीताम्बर है जो समूर्ण आकाश को ढकने का सामर्थ्य रखता है..आग्नेय दृष्टि से कृष्ण ने कुरुसभा को मानो चुनौती दी हो...द्रौपदी के ओढे पीताम्बर को स्पर्श करने की चुनौती..
                कुरुसभा के समस्त वीर योद्धा जानते हैं कि द्रौपदी के शरीर पर पड़े पीताम्बर को स्पर्श करने का अर्थ  कृष्ण के सुदर्शन चक्र को ललकारना है..वे यादवों के अधिपति हैं....इस सुदर्शन के पीछे संसार का नाश करने में सक्षम मृत देहों का अंबार खड़ा करने के बलराम के हल की फाल से सब परिचित हैं..यादव श्रेष्ठ सात्यकि की बाणों की गति संसार जरासंध युद्ध मे देख चुका है,,,उद्दव के धनुष की टंकार किसी भी साम्राज्य का विध्वसंश करने में सक्षम है....ये पीताम्बर नही,,यादवों का आत्मसम्मान है...यह कृष्ण का धर्म है...और संसार मे किस महारथी का सामर्थ्य है जो कृष्ण के धर्म को चुनौती दे सके..
             सभा निर्वीर्य देखती रह गयी,,,भगवान भक्त का हाथ थामे धीमे से वहां से प्रस्थान कर गए....

क्या है आपके लिए निषेध

--*** क्या है आपके लिए निषेध.***
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        कारक व अकारक के संबंध में बहुत सी भ्रांतियां व जिज्ञासाएं देखने मे आती रहती हैं..कई पाठकों का प्रश्न होता है कि हमारे लिए क्या कारक है व क्या अकारक है....ऐसे में अपने सुधि पाठकों को आज इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता हूँ....कारक अकारक के कंफ्यूज़न में एक शब्द सदा उपेक्षित हो जाता है,,,और वह है निषेध.... निषेध अर्थात आउट ऑफ बाउंड...आपके समीकरण के विपरीत कोई सिद्धान्त,,नियम,,वस्तु...
          पेट्रोल कितना भी ताकतवर सही,किन्तु डीजल इंजन में निषेध है,,,,,डीजल कितना भी बेहतर सही,,पेट्रोल इंजन में निषेध है....जल से उत्पन्न होकर भी विधुत उपकरणों के लिए जल निषेध है..दूध कितना भी बेहतर सही,,खट्टे के साथ निषेध है....ऐसे में जातक के जीवन मे कई साधन निषेध हैं,,किन्तु हम ज्ञान के अभाव में उन्ही निषेध पदार्थों को अपने जीवन मे उपयोग करते रहते हैं,,व अपने लिए समस्याएं उत्पन करते हैं...
                  अष्टम भाव अंतिम भाव है जीवन का.…नवम प्रथम भाव है,,प्राण है..आठवां अंतिम ग्रह है,,,आठ ग्रह हैं....ग्रहों का प्रमाण आठ है,,,केतु राहु से ही निकला हुआ ग्रह है.…अतः आठवें का रंग मनुष्य के लिए कफन का रंग है.…..इससे परहेज करना बेहतर होता है..अष्ठम मृत्यु के बाद नवम प्रथम जीवन का आभास है,,धर्म है,,मंदिर है,,देवता का स्थान है...बचपन है.....ध्यान दीजिए,,भोजन का सबसे अधिक परहेज बालक के लिए ही होता है...बहुत से भोज्य पदार्थ उसका शरीर पचाने में सक्षम नही होता...दूसरा यह कि मंदिर होने के कारण ये देवताओं को अर्पित होने वाला स्थान है,,यहाँ की हर वस्तु पर देवताओं का अधिकार है...अतः भोज्य पदार्थ के रूप में आपके लिए त्याज्य है.…..नवम में बैठे ग्रह व नवमेश से संबंधित भोजन का परहेज करिये....यहां गुरु विराजमान है तो केले से परहेज कीजिये..चंद्र की राशि है तो रात्रि में दूध से परहेज कीजिये.. आठवें का संबंध मंगल से है तो पहनने के लिए लाल रंग से परहेज कीजिये...,गुरु का संबंध है तो पीले रंग के वस्त्रों से परहेज कीजिये...चंद्र संबंधी है तो सफेद त्याज्य है....इसी प्रकार अन्य ग्रहों का संबंध देखा जाना ,,बहुत सी जटिलताओं को सुलझाने में सहायक होता है....
        आशा है पाठकों तक अपनी बात पहुंचा पाया हूँ...कृपया अपनी अमूल्य राय रखिये....रविवार के अवकाश का आप पूर्ण आनंद लें,,,,इसी दुआ के साथ आप सभी को सादर प्रणाम..