ईश्वर की सत्ता पर अविश्वास ही दुखों का मूल है.दुखों का परिचय ही मनुष्य को वहां से होने लगता है,जहाँ से वह स्वयं को अपना पालनकर्ता समझने लगता है.शास्त्र कहते हैं की जन्म से लेकर मरण तक मनुष्य का किसी भी अवस्था में स्वयम को निर्धारणकर्ता मान लेना ही उसके गर्त की ओर गिराने का मार्ग बनाता है.स्वयं को उस बच्चे के समान मानिए जिसे हम हवा में उछालते हैं तो वो डरकर रोता नहीं,अपितु खुश होकर खिलखिलाता है . कारण क्या है ? यही की उसे आप के ऊपर यह अटल विश्वास है की आप उसे जमीन पर नहीं गिरने देंगे.आप के ऊपर यही विश्वास उसे हंसने को उकसाता है.ईश्वर की सत्ता पर यही विश्वास हमें दुखों में भी मुस्कुराने का संबल प्रदान करता है.उस परम पिता ने सब कुछ पहले ही निश्चित किया हुआ है.ठीक एक फिल्म के रायटर की तरह.बस जो भी किरदार हमें मिला है ,आवश्यकता उसमे अवार्ड विन्निंग पर्फोर्मांस की है.ताकि जब दर्शक सिनेमा हॉल से बाहर निकलें तो याद रखें आपके किरदार को.फिल्म चाहे हिट हो या फ्लॉप.
समानरूप से जीवन में जो भी किरदार हासिल हमें हुआ है,दूसरों पर, स्थितियों पर, जलन की भावना न रख अपने कर्तव्यों का निर्वाह,बल्कि कहना चाहिए उचित निर्वाह ही आपको ईश्वर के निकट ले जाता है.अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा कर अध्यात्म की तलाश में निकले लोग उस कस्तूरी मृग के सामान हैं जो अपने पास की ही सुगंध को प्राप्त करने के लिए वन-वन भटककर आखिर में थककर निराश हो बैठ जाता है.
बड़े ज्ञानियों और गुरुजनों ने सदा ही कहा है की यात्रा अन्दर की है.अर्थात अपने मन में झांको.वहां की अच्छाइयों बुराइयों को देखो.दूसरों के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखना इस बात की ओर संकेत है की हमें अभी तक ये ही नहीं मालूम है की अन्य सभी अपना अपना किरदार निभा रहे हैं.आप उनसे प्रभावित या विचलित जो भी हो रहें हैं,ये बताने के लिए काफी है की वो अपने किरदार को बड़े कितने बेहतर ढंग से निभा कर अवार्ड जीतने की ओर अग्रसर हैं.ओर आप काफी पीछे छूटे जा रहे हैं.
महायात्रा कर जब अपने वास्तविक ठिकाने हम लौटते हैं तो यहाँ कमाए गए रुपये डालर अदि की वहां कोई कीमत नहीं है.यहाँ आपके किरदार पर बटोरी गयी तालियाँ व आपके सत्कर्मो द्वारा जमा किया पुण्य रुपी धन ही निर्णय लेता है की कितने बड़े क्रेडिट कार्ड के हकदार आप हैं.
किसी ने सत्य ही कहा है की ये दुनिया तो सराय है जो हमारे कुछ ही दिनों का ठिकाना है.असल गंतव्य कहीं और ही है.जिसे आज हम अपना समझ बैठे हैं वो कल किसी और का था और कल किसी और का होना तय है.फिर काहे का मोह. मन को भजिये ,यही द्वार है महानिर्वाण का.
समानरूप से जीवन में जो भी किरदार हासिल हमें हुआ है,दूसरों पर, स्थितियों पर, जलन की भावना न रख अपने कर्तव्यों का निर्वाह,बल्कि कहना चाहिए उचित निर्वाह ही आपको ईश्वर के निकट ले जाता है.अपनी जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा कर अध्यात्म की तलाश में निकले लोग उस कस्तूरी मृग के सामान हैं जो अपने पास की ही सुगंध को प्राप्त करने के लिए वन-वन भटककर आखिर में थककर निराश हो बैठ जाता है.
बड़े ज्ञानियों और गुरुजनों ने सदा ही कहा है की यात्रा अन्दर की है.अर्थात अपने मन में झांको.वहां की अच्छाइयों बुराइयों को देखो.दूसरों के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखना इस बात की ओर संकेत है की हमें अभी तक ये ही नहीं मालूम है की अन्य सभी अपना अपना किरदार निभा रहे हैं.आप उनसे प्रभावित या विचलित जो भी हो रहें हैं,ये बताने के लिए काफी है की वो अपने किरदार को बड़े कितने बेहतर ढंग से निभा कर अवार्ड जीतने की ओर अग्रसर हैं.ओर आप काफी पीछे छूटे जा रहे हैं.
महायात्रा कर जब अपने वास्तविक ठिकाने हम लौटते हैं तो यहाँ कमाए गए रुपये डालर अदि की वहां कोई कीमत नहीं है.यहाँ आपके किरदार पर बटोरी गयी तालियाँ व आपके सत्कर्मो द्वारा जमा किया पुण्य रुपी धन ही निर्णय लेता है की कितने बड़े क्रेडिट कार्ड के हकदार आप हैं.
किसी ने सत्य ही कहा है की ये दुनिया तो सराय है जो हमारे कुछ ही दिनों का ठिकाना है.असल गंतव्य कहीं और ही है.जिसे आज हम अपना समझ बैठे हैं वो कल किसी और का था और कल किसी और का होना तय है.फिर काहे का मोह. मन को भजिये ,यही द्वार है महानिर्वाण का.
Kahte hain bheega hua insan barish se nahi darta hain dukh sahte-2 aadat bhi ho hi jati hai sahne ki aur sangharsh karne ki magar tab ichchhao k sath dheere-2 ladne ki takat bhi khatm hone lagti hai. Bhagya hi nhi Bhagwan pe bhi vishwas kam hone lagta hai,
जवाब देंहटाएंaise samay koi kya kare
Anubhav Shukla
शुक्ला जी ,अपने सामर्थ्य अथवा प्रयासों से अधिक पाने की चाह ही संभवतः इंसान को इस मोड़ पर ले आती है.बहुत पुरानी कहावत है किन्तु बहुत सटीक है,कि भाग्य से अधिक व समय से पहले भला किस को मिला है? और भला क्या पाने की चाह की जा रही है.क्यों अपने से अधिक दुखी इंसान की ओर दृष्टि नहीं जा रही.आवश्यकता सत्संग (अगर वास्तविक अर्थ समझ सकें) व संतोष की है.अगर कुछ बुरा है तो वह इससे भी अधिक बुरा हो सकता था .फिर जो है तो भला क्यों है? शाश्त्र का कथन है
जवाब देंहटाएं" रोगं-शोकं-परितापं ,बन्धनम वय्स्नानि च
आत्मपराध वृक्षस्य फलानेतानी देहिनाम"
अर्थात रोग शोक बंधन परिताप ये सब हमारे ही अपराध वृक्ष के फल हैं,चाहे इस जन्म के हों,चाहे उस जन्म के.
Namaskar Pandit ji!very beautiful article.u r 100% right Pandit ji!Thanks a lot.
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