शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

गीता और कृष्ण

******---     गीता और कृष्ण,,,,,,क्या पहचाना हमने--*****
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     "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन.....मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि "

       श्रीमद्भगवद्​गीता के  सर्वाधिक प्रचलित श्लोकों में से एक,,,कर्म व धर्म के संबंध को परिभाषित करते इस श्लोक को आधार लेकर कई टीकाओं,,कई ग्रंथों की रचना कालांतर में होती आई है... ग्रंथों में श्रेष्ठ स्थान रखने वाली पुस्तक में,,मेरे श्रेष्ठ नायक किरदार श्री वासुदेव कृष्ण द्वारा कही गयी ये सर्वश्रेष्ठ उक्ति है....ये पंक्तियां समय समय पर अपना उद्देश्य,,अपना महत्व प्रकट करती रही हैं,,किन्तु विडंबना है कि अनेकों बार विद्वान जनों द्वारा भी इसका वास्तविक महत्व समाज तक नही पहुंचाया जा रहा है....
        इन असाधारण पंक्तियों में ही समस्त गीता का सार है....अगर इन अमृत सरीखे शब्दों के शहद को आप पा गए ,,तो कदाचित बाकी कुछ पढ़ना,,समझना शेष नही रह जाता..और आज के परिवेश को आधार माने,,,तो शांति प्राप्ति (स्वयं व समाज दोनो हेतु) का इससे श्रेष्ठ मार्गदर्शक कोई नही...
                  महाभारत काल मे स्वयं को प्रस्तुत कीजिए...कुरुक्षेत्र के उस निर्णायक मंच पर आप अपने अपने धर्म (अर्थात क्षेत्र) के श्रेष्ठ अनुपालकों को ,,अपना अपना धर्म निर्वाहन करते देख रहे हैं...
               कुरु राजसत्ता के शिखर पर बैठे राजा का सेवक  बन सदा राज्य की सीमाओं की सुरक्षा को अपना धर्म मानूंगा,, ऐसा प्रण करने वाले गंगा पुत्र भीष्म ,,,,,,,मित्रता को संसार का श्रेष्ठ धर्म मानने वाले सूर्य पुत्र मृत्यंजय कर्ण,,,,अपने आजीविका दाता के प्रति निष्ठा को ही धर्म का आधार मानने वाले आचार्य द्रोण,,,,अपनी राजसत्ता को अखंड बनाकर रखने हेतु अपने राज्य की भूमि से सुई की नोक के बराबर हिस्सा भी अलग न होने देने का संकल्प रखता गांधारी का बलशाली पुत्र सुयोधन....अपने वचन निर्वाह हेतु अपने सगे भांजे के विरुद्ध युद्ध करते शल्य,,,अपने भांजे प्रेम पर स्वयं को होंम करते शकुनी,,,,,,
          इनमे से किसके धर्म पर आप तर्जनी उठा सकते हैं भला??...कृष्ण यदि दुर्योधन को अधर्म के मार्ग पर समझते,,तो अपनी नारायणी सेना कभी उसके आधीन न करते....
            वास्तव में "अधर्म " की कोई एक व्याख्या नही है मित्रों...अपना कोई अस्तित्व नही है...जिस प्रकार प्रकाश की अनुपस्थिति अंधकार है,,,उसी प्रकार धर्म की अनुपस्थिति अधर्म है..... अंधेरा कहीं से आता नही है,,वह सर्वत्र है,,,सर्वव्यापी है....सदा से है....उसी प्रकार अधर्म सदा से है,,सर्वत्र है....
              अंधकार को स्वयं को परिभाषित ,,प्रस्तुत करने की आवश्यकता नही होती,,,,सूर्य की अनुपस्थिति स्वयं अंधकार है....यात्रा सूर्य को करनी है,,,,,प्रकाश का साम्राज्य स्थापित करने के लिए....अंधकार के विनाश के लिए नही,,,,,सूर्य अंधकार का सदा के लिए विनाश नही कर सकता.. सूर्य के अनुपस्थित होते ही अंधकार उपस्थित है बन्धुओं....,,,प्रकाश को बचाना सूर्य का धर्म नही है,,,......सूर्य का धर्म प्रकाश की स्थापना है....प्रकाश सदा स्थापित रहेगा तो अंधकार का कोई अस्तित्व है ही नही....और अपने इस धर्म की स्थापना के लिए सूर्य को निरंतर अपने कर्मपथ का निर्वाह करना होता है....
               इसी प्रकार धर्म की स्थापना ही अधर्म की समाप्ति है....समस्या वहां से उत्पन होती है ,,जहां से मनुष्य स्वयं के कर्मपथ को त्याग,,दूसरों के धर्म हेतु अपने नियम लागू करना चाहता है,,,,ठीक यही विचार आपके प्रति दूसरे मनुष्य के भी होते हैं...वह भी स्वयं के धर्म को त्याग,,आपके धर्म को गलत ठहराने में पथभ्रष्ट है... ..
           दुर्योधन को गलत साबित करना कृष्ण का मंतव्य नही था...वे  भीष्म,,द्रोण,, कर्ण को अधर्मी नही मानते थे,,,फिर से ध्यान दें कि उन्होंने कुरुओं को अपना धर्म निर्वाह करने हेतु समस्त नारायणी सेना तक दे डाली....यादवों में इस युद्ध को लेकर अपने अपने विचार थे,,,अधिकांश यादव महारथी ,,कौरवों का पलड़ा भारी समझ,,,भविष्य में उनसे किसी भी प्रकार की शत्रुत्रा के पक्ष में नही थे....ये उनके राज्य के लिए हानिकारक हो सकता था,,,द्वारिका के संबंध हस्तिनापुर से खराब हो सकते थे,,,भविष्य में उनमे किसी भी प्रकार का व्यापार बाधित हो सकता था,,,जो कि द्वारका जैसे नवनिर्मित राज्य के लिए उचित नही था..अतः यादव कुरुओं के पक्ष में रहना चाहते थे.. .. कृष्ण ने उन्हें अपने इन विचारों को ही अपना धर्म समझ ,,उस धर्म की रक्षा हेतु अपना कर्मपथ प्रशस्त करने की स्वतंत्रता दी.....अपना धर्म पालन करने की प्रेरणा दी..
        किन्तु कृष्ण का धर्मपथ यादवों से अलग था...उन्होंने अपने धर्म की स्वीकृति स्थापित करवाने के लिए यादवों के धर्मपथ को गलत साबित करने की चेष्ठा नही की....उन्होंने स्वयं के धर्म को स्थापित करने हेतु कर्मयुद्ध किया..उन्होंने सर्वप्रथम अपना मार्ग ,,अपना धर्म निर्धारित किया,,,,पश्चात अपने धर्म को स्थापित करने हेतु अपना कर्म किया.....कर्म का पालन ही धर्म की स्थापना है,,,,ये संदेश दिया....
                  हम कई बार कृष्ण के मार्ग का अनुशरण करने की चेष्ठा में,,उनके मार्ग से वास्तव में कोसों दूर चले जाते हैं......वे कहते हैं  " यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌.........ध्यान दीजिए,,,,धर्म के उत्थान के लिए,,अपने को प्रकट करता हूँ......धर्म की हानि होती है,,,तो सृजन करता हूँ.....किसका भला??? धर्म का...धर्म के मार्ग की स्थापना हेतु मैं अपने कर्मपथ का सृजन करता हूँ...इन पंक्तियों में वे  किसी के विनाश का ज़िक्र नही कर रहे हैं......वे निर्माण कर रहे हैं,,,,अपने धर्म का,,,,,,और जब धर्म का निर्माण होगा तो अधर्म का  पतन करने की आवश्यकता नही होगी..क्योंकि सूर्य की उपस्थिति स्वयं अंधकार दूर करेगी.....किसी को नष्ट करना आपका उद्देश्य नही,,आपका धर्म नही.....आपका उद्देश्य मात्र सृजन है,,,धर्म का सृजन.....अधर्म का विनाश तो स्वयं होता है..हम दूसरों के अधर्म का विनाश करने के लिए स्वयं के धर्म को नाश कर बैठते हैं..यही मुख्य समस्या है...यही अराजकता उत्पन करता है,,यही अशांति को जन्म देता है....इसे परिवार,,समाज,,राष्ट्र किसी भी रूप में देखिए,,,,,किन्तु आप देखेंगे कि समस्या का मुख्य कारण यही है कि हम दूसरों द्वारा तय किया गया मार्ग (उनका धर्म) गलत साबित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं...जबकि आवश्यकता यह है कि यदि आपको दूसरे का धर्म (कर्म) गलत प्रतीत होता है तो आप उसे गलत साबित करने की चेष्ठा मत कीजिये..आप स्वयं के धर्म को स्थापित करने के लिए अपना सर्वस्व झोंक दीजिये...यही आपका अधिकार है,,यही आपका कर्मपथ है...आप प्रकाश का सृजन कीजिये.....अंधेरे को नष्ट करने की चेष्ठा मत कीजिये....वह स्वतः अपना प्रभाव खो देता है...
                     आगे वासुदेव कहते हैं कि  "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ,,,धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे "....
        वे साधुजनों के उद्धार को मुख्य मानते हैं,,,, "विनाशाय दुष्कृताम "तो "परित्राणाय साधूनां" का स्वअर्जित फल है.....उसके लिए भला कैसी चेष्टा??...दूध में चावल मिला देने से ही खीर का निर्माण स्वतः हो रहा है,,उसके लिए अलग से किसी चेष्ठा की आवश्यकता नही...धर्म की संस्थापना हेतु मैं युगों युगों में जन्म लेता हूँ.....युगों युगों में जन्म लेता हूँ कहते हैं कृष्ण..किसलिए जन्म लेते हैं भला??धर्म की संस्थापना हेतु......अधर्म के नाश की बात वे कर ही नही रहे हैं...धर्म की संस्थापना का उत्पादित फल स्वयं में अधर्म का विनाश है....उन्होंने कंस के वध हेतु जन्म नही लिया,,,वे देवकी के उद्धार के लिए अवतरित हुए.....देवकी के उद्धार के रुप मे कंस का वध स्वयं हुआ....होना ही था.....कंस वध का फल देवकी का उद्धार नही था मेरे प्रिय पाठकों.....अपितु देवकी के उद्धार की क्रिया की स्वतः हुई प्रतिक्रिया कंस का विनाश थी.....
      "संभवामि युगे युगे" .... वे कहते हैं युगों युगों में.....अर्थ की गहराई में उतरिये.... हिरण्यकश्यप के मार्ग का ,,उसके धर्मपथ के मार्ग का विरोधी अगर मैं होता,,तो उसे इतना आगे आने की स्वतंत्रता भला क्योंकर देता..मेरा विरोध करना हिरण्यकश्यप यदि अपना धर्म समझता है,,तो अपने धर्म का पालन करे...मुझे तुझसे कोई दुर्भावना नहीं,,,,,,....मेरा नरसिंह अवतार तो बहुत बाद में प्रह्लाद के रक्षार्थ हुआ था....मैंने हिरण्यकश्यप का अंत करना होता तो बहुत पहले कर दिया होता....मुझे तो अपने भक्त प्रह्लाद के धर्म की रक्षा हेतु जन्म लेना पड़ा.....प्रह्लाद की रक्षा मेरा धर्म था.....उस धर्म पालन में मैंने अपने कर्मपथ का निर्वाह किया...हिरणाकश्यप की मृत्यु मेरे धर्म पालन के स्वरूप हुई स्वतः प्रतिक्रिया है....
        वे धनंजय अर्जुन को बताते हैं कि  युगों युगों का प्रमाण देख लो ,,,,,मैंने इंद्र के वर्चस्व को चुनौती देना अपना धर्म नही समझा....मेरा धर्म अहिल्या पर हुए अत्याचार का प्रतिकार करना था.....मैंने अपना धर्म निर्वाहन किया...बाली से मेरी कोई व्यक्तिगत शत्रुता नही....मेरा व्यक्तिगत तो कभी कुछ रहा ही नही..मैंने सुग्रीव की सहायता ही अपना धर्म समझा...और उस धर्म की स्थापना में बाली स्वयं मृत्यु का ग्रास बना....सीता की खोज मेरे लिए अगर मेरे धर्म से प्रिय मुझे होती,,तो हे पार्थ ,,मैं सक्षम बाली की सहायता मांगता....जो मुझे सीता खोज में अधिक सुविधाजनक होता....किन्तु मैंने ऐसा नही किया..मैंने बाली के कर्म पथ को भी गलत नही कहा,,,क्योंकि उसकी कबीलाई सोच,,उसके जंगली संस्कारों में अनुज की वधु का भोग करना कोई आश्चर्य नही था...किन्तु मेरे आर्य धर्म मे अनुज भ्राता की सहचरी ,,सगी पुत्री समान होती है....और पुत्री का अनादर करने वाला पिता ,,मृत्युदंड का भागी होता है......मुझे तुमसे कोई द्रोह नही है वानरराज  बाली,,,मैं बस अपने कर्म पथ पर अपने धर्म की संस्थापना का पक्षधर हूँ....
              तो देखिए,,,,,मुख्य क्या है,,,सर्वप्रथम आपको धर्म की पहचान करनी है.....अपने वास्तविक धर्म की.....आपका धर्म दूसरों के धर्म के निर्धारित सिद्धांतो के विपरीत होना सहज है...दूसरा कार्य अपने धर्म के सिद्धांतों के कर्मपथ (नियम) आपको ज्ञात होने आवश्यक हैं.....और अब आपका कर्तव्य इस धर्म की संस्थापना हेतु कर्मों का सृजन करना है...यही शांति का मार्ग है,,यही कृष्ण का मार्ग है...युद्ध ही शांति का मार्ग है,,,,,किन्तु युद्ध का मंतव्य दूसरों के धर्म का विरोध नही है,,,,,युद्ध का गहन अर्थ एक स्वाभाविक क्रिया के रूप में लिया जाना चाहिए.......जिसका कोई फल नही....जिस युद्ध (क्रिया) को हम किसी फल (प्रतिक्रिया) के लिए नही लड़ रहे.........ये युद्ध तो हमारे धर्म के कर्मपथ पर आने वाला एक पड़ाव मात्र है......हे कुन्तीनन्दन ये युद्ध किसी के पथ को,,किसी के धर्म को गलत साबित करने के लिए नही लड़ा जा रहा है....ये युद्ध धर्म की संस्थापना के लिए है...हमारे धर्म की संस्थापना के लिए.........और युद्ध भूमि के उस पार जो हमारा विरोध करने के लिए खड़े हैं,,,वे भी हमारी ही तरह हैं...या कहें मेरा ही अंश हैं..बस उनका धर्म अलग है,,,,,,हमारे धर्म से उन्हें सहमति नही......अतः अपने धर्म के रक्षार्थ ,,अपने धर्म की संस्थापना हेतु वे भी अपने कर्मपथ का अनुशरण कर रहे हैं,,और यही उनका कर्तव्य है..वे अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं,,,तुम उनका विरोध मत करो,,,उन्हें गलत साबित करना तुम्हारा उद्देश्य नही है....तुम्हारा उद्देश्य उस विचार की स्थापना करना है,,जिसे तुम अपना धर्म समझते हो..यही युद्ध कारण है........
               इसके परिणाम (फल)  की चिंता भी मत करो.....क्योंकि परिणाम भविष्य के गर्भ में है...परिणाम प्रकृति के अधिकार का विषय है....और इतना तय है कि प्रकृति भी सदा अपने धर्म का निर्वाह करती है...वह कभी आपको उसके प्रति अत्याचार करने से नही रोकती,,वह कभी आपको गलत नही ठहराती,,,,कभी आपको अधर्मी नही कहती........वह बस अपने धर्म का पालन करती है ...और उसका धर्म स्वयं की रक्षा करना है......अपने पर आश्रित जीवों के कल्याण के लिए स्वयं की रक्षा ही इसका धर्म है...और  अपने धर्म के पालन में वह प्रलय की रचना करती है.....जलीय प्रलय,,आकाशीय प्रलय,,,भूमि प्रलय....इस प्रलय में किसे कितना नुकसान हुआ,,इसका आरोप प्रकृति पर नही थोपा जा सकता..वह बस अपने धर्म का पालन कर रही थी....और अपने धर्म निर्वाह में वह अपना पराया का भेद नही करती.......तुम उसे उसके मार्ग से बाधित नही कर सकते,,,किन्तु स्वयं के रक्षार्थ उपाय करना तुम्हारा अधिकार व धर्म दोनो है....तुम प्रकृति का श्रृंगार करो,,,उसके बनाये नियमों का पालन करो,,यही तुम्हारा धर्म होगा....
          इसी क्रम में हम देखते हैं कि घर,, परिवार,,कार्यस्थल ,,समाज ,,देश ,,,कहीं भी मनुष्य अपने धर्म का निर्वाह नही कर रहा..दूसरों के धर्म का विरोध ही वह अपना धर्म समझ रहा है......दूसरों के कर्मपथ में कांटे बिछाना ही अपना कर्तव्य समझ बैठा है,,,जबकि आवश्यकता अपने कर्म पथ पर फूल बिछाए जाने की है..
        जन्माष्टमी में कृष्ण का जन्मोत्सव मनाने से पूर्व हम उनकी शिक्षाओं का वास्तविक अर्थ समझ ,उनका उपयोग एक स्वस्थ व सुखी समाज के सृजन में करें,,,,,,तो दुष्टात्माओं का ,,अधर्म का,,,अंधकार का  विनाश स्वयं हो जाएगा........और यही वास्तविक कृष्णभक्ति ,,,,यही गीता का उद्देश्य और यही वास्तविक धर्म पथ होगा......
      ((   मात्र औपचारिकता के लिए लाइक मत कीजियेगा,,,,,,आपने लेख पढ़ा,,,,,इससे सहमत हैं,,,तो टिप्पणी कीजिये.......असहमत हैं तब भी टिप्पणी कीजिये...किन्तु अपने विचार अवश्य प्रस्तुत करें.....पाठक की प्रेम रूपी टिप्पणी ही लेखक के कलम की उर्जा होती है)) ....सादर प्रणाम.........
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1 टिप्पणी:

  1. नमस्ते गुरुजी मेरी जन्म तारीख़ १/१२/१९९४ शाम ५:१५ जिला आजमगढ़ में जन्म हुआ हैं।मेरी शादी कब होगी और जीवनसाथी कैसा मिलेगा और वैवाहिक जीवन कैसा होगा ।कृपया करके मेरा मार्गदर्शन कीजिए ।मै आपका बहुत आभारी रहूंगा ।
    धन्यवाद

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