रविवार, 12 अक्टूबर 2014

Eklavya... महान धनुर्धर - महाभारत का एक भूला बिसरा नायक :एकलव्य



 'संसार के श्रेष्ट महाकाव्यों में महाभारत सहज ही अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करता है। हिन्दू धर्म पर ही नहीं अपितु संसार भर में अपने अपने समय काल के अनुसार इसका प्रभाव देखा गया है। ज्ञान का समुद्र गीता यहाँ से निकलती है ,तो भाई भाई के द्वेष का परिणाम भी इसमें वर्णित है। अनगिनत कथाएं ,अनगिनत चरित्र ,अनगिनत मुखों ,अनगिनत कलमों से महाभारत  के सन्दर्भ में प्राप्त होते हैं।आपको भी संभवत इस महाकाव्य की प्रत्येक कथा व चरित्र याद हो। कई सूत्रों से कई साधनो से आपने बहुत कुछ नया ज्ञात किया होगा। किन्तु आज मैं योगेश्वर कृष्ण की कथा का इच्छुक नहीं हूँ न ही महाबली भीम का गुणगान करना चाहता हूँ। न मेरे कलम का लक्ष्य आज गांडीवधारी अर्जुन है, न दानियों में श्रेष्ट सम्मान रखने वाले सूर्य पुत्र कर्ण । मैं  इच्छुक हूँ  उस भुला दिए गए नायक चरित्र को याद करने का ,जिसके साथ संभवतः सबसे बड़ा विश्वासघात हुआ ,जिसके अहम, जिसके सम्मान को राह के पत्थर की तरह ठोकर मार कर भुला दिया गया। जिसके आंसुओं की टीस ,जिसके ह्रदय की वेदना ,जिसके कंपकपांते अधरों के क्रंदन को उसकी छोटी जाति के कारण अनदेखा कर दिया गया। धर्म के रक्षक होकर भी चक्रपाणि वासुदेव ने एक बार भी जिसके प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार तक  न किया। प्रकृति ने जिसके साथ हुए छल का जिक्र पेड़ों की झुरमुठ में छिपा लिया।हाँ मित्रों आज कलम उसी महानायक की  यशगाथा गाने को आतुर है ,जो बिना किसी वरदान के ,जो बिना किसी देवता का पुत्र हुए ,जो बिना किसी दैवीय अश्त्र की सहायता के भी निस्संदेह संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी था ,सर्वोत्तम शिष्य था ,सर्वोत्तम दानी था। हाँ ,आज कलम निषादपुत्र वीर एकलव्य की यशोगान की इच्छुक है ,उसकी विद्या का  ,उसका बल का जो उसके समकक्षों की नजर में कांटे की भांति चुभने लगा।
                         अपने अभ्यास में अवरोध उत्पन कर रहे श्वान (कुत्ते )के मुंह को बारह बाणो  से इस प्रकार भर कर बंद कर देना कि रक्त की एक बूँद भी न निकले ,धनुष विद्या के सर्वाधिक कठिन अध्याय "शब्द- भेदी"  का  सर्वोत्तम उदाहरण था.ब्रह्माण्ड में इस विद्या के वैसे ही बहुत अल्प जानकार हैं ,किन्तु जिस स्तर पर इसके साक्षी आज द्रोण हो रहे हैं ,ये असंभव है.निस्संदेह जिसने भी ये किया है वो कोई साधारण मनुष्य नहीं हो सकता। कौन है ऐसा पारंगत धनुर्धारी ,इस जिज्ञासा सहित जब गुरु के साथ सारे राजकुमार वन
में  पहुंचे तो एक साधारण भील पुत्र को उन्होंने बड़े ही साधारण स्तर के धनुष से अभ्यास करते हुए पाया। बगल में पड़ा बाणों का ढेर, कुक्कुर के मुंह से मिले बाणो के सहयोगी होने की स्पष्ट चुगली कर रहा था। द्रोणाचार्य को अपनी आँखों  सहसा विश्वास नहीं हुआ। नहीं ये चमत्कार इस बालक के सामर्थ्य में नहीं। कहीं ये भेष बदले स्वयं गुरु फरशुराम ही तो नहीं अथवा कोई देवता है मनुष्य भेष में। फरशुराम ये नहीं हैं। व स्वयं धनुर्विद्या के पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ आचार्य जानते हैं कि  देवताओं में भी धनुर्विद्या का इतना पारंगत तो कोई नहीं है। फिर ये कौन है .  कौन है तुम्हारा गुरु " नसतं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्। शिष्यं धानुषधार्मज्ञ: तेषामेवान्ववक्षया " जिसने तुम्हे धनुष विद्या का मर्मज्ञ बनाया है निषाद। "मैं आपका ही शिष्य हूँ. गुरुदेव ,आप ही मेरे आराध्य हैं .शब्द भेदी बाण चलाने में अर्जुन को अभी  बहुत अभ्यास व समय लगने वाला था ,किन्तु ये भील  युवक कितनी सहजता से इसे अंजाम दे रहा है। गुरु की आँखें फटी रह गयीं। क्या सोचते थे वे  और आज वास्तव में क्या है। कहाँ तो अपनी दृष्टि में वे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बना रहे थे व लगभग इसमें सफल भी हो गए थे ,और कहाँ मात्र धनुष को थामने का ही तरीका इस भील पुत्र के अर्जुन से लाखों कदम आगे होने की गवाही दे रहा है. इस छोटी आयु में शरसंधान के जो सबक इस भील ने कंठस्त किये हैं ,उससे उन्हें अर्जुन और स्वयं दोनों के स्वप्नों पर पानी फिरता स्पष्ट दिख गया है।                 
                              तमब्रवीत् त्वयांगुष्ठो दक्षिणो दीयतामिति "  इन शब्दों का द्रोणाचार्य  के मुंह से निकलना था कि समस्त ब्रह्माण्ड के साथ ही एकलव्य के ह्रदय पर कुठाराघात हुआ.पूर्व में हुए अपमान को बिसराकर एकनिष्ट भाव से एकलव्य ने भले ही द्रोन को अपना गुरु मान उनकी प्रतिमा के समक्ष धनुष चलाना सीखा हो,किन्तु इसमें जरा भी संशय नहीं कि ये उसके नैसर्गिक ,प्राकर्तिक जन्मजात प्रतिभा ही है कि एकलव्य जंगली बांस से बने अपने धनुष के जोर से अनगिनत सुविधाओं से लैस हो ,नवीनतम अश्त्रों से सुसज्जित ,व संसार के श्रेष्ट गुरु आचार्य द्रोणाचार्य की शिक्षा से कृतार्थ होने वाले कुरु राजवंशियों सहित स्वयं आचार्य को भी अचंभित कर सका है.पांडू पुत्र अर्जुन का समस्त गर्व मानो आज आंसुओं के साथ बह जाना चाहता है.अर्जुन ने तिरछी दृष्टि से गुरु की ओर देखा मानो उलाहना देना चाहता हो.आपने तो कहा था कि मुझे आर्यव्रत का सर्वश्रेष्ट धनुर्धर बनायेंगे.मेरे बल के आगे कोई नहीं टिकेगा,फिर ये कौन है ,भेषभूसा से तो जंगली मालूम होता है.अर्जुन के मन में इर्ष्या की आग मानो उसे ही आज जला कर भस्म कर देगी.
                                 संसार सदा से सबल का पक्ष लेता रहा है ...."सबहु सहायक सबल के ,कोउ न निबल सहाय ....पवन जगावत आग तें अरु दीपक देत बुझाय "
 ऊँची जाति के ,उच्च वंश के ,उच्च कुलीन राजकुमारों के आगे एक भील पुत्र को श्रेष्ठ होने का कोई अधिकार नहीं था। द्रोणाचार्य के झूठे अहं की प्रभावशाली वायु ने एकलव्य रुपी दीपक को फूँक मारकर बुझा दिया (अपने गुरु फरसुराम की परंपरा को आचार्य द्रोण ने कायम रखा )……दूर कहीं शिव की आँखों से इस अन्याय पर एक अश्रु टपका ,जिसने कुरुवंश के नाश की भविष्यवाणी कर दी। इतिहास साक्षी है कि सुपात्र का अधिकार छीन कर कुपात्र को दिया ज्ञान सदा से विनाश का कारण है।
           ज्योतिषशाष्त्र गवाह है कि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का जातक अपनी स्त्रीस्वभाव युक्त जिद से सदा अपना मंतव्य पूरा करता रहा है ,पार्थ ने आज उसे सच कर दिखाया। अर्जुन की इच्छा पूर्ण हुई।  मुझे गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा दो। आचार्य द्रोण का ये कथन मानो सदा के लिए उन पर  कलंक लगा गया। वे स्वयं अपने वचन पाश में बंधकर विवश थे ,कुरु वंश के राजकुमारों के सिवा अन्य किसी को शिक्षा नहीं दूंगा। द्रुपद के वचनभंग के पश्चात याद है द्रोण को कि  अश्वथामा को चावल का पानी दूध बताकर पिलाते थे। अब उस अभाव के बारे में सोच कर भी सिरहन होती है। नहीं वो भीष्म को किसी कीमत पर रुष्ट करने का साहस नहीं कर सकते। एकलव्य को पीछे हटना ही होगा  .बिना अंगूठे के शर संधान नहीं हो  सकता।
                   " तमब्रवीत् त्वयांगुष्ठो दक्षिणो दीयतामितिसकता"।  तो मुझे अपना अंगूठा गुरुदक्षिणा में दो .किन्तु जितना समय महादानी,सूर्यपुत्र कर्ण ने देवराज इंद्र के कवच कुण्डल कुण्डल मांगने पर उन्हें अपने शरीर से अलग करने में लगाया होगा उससे शतांश समय में एकलव्य का अंगूठा आचार्य के चरणो में था। ब्रह्माण्ड त्राहि कर उठा। शिष्य होने की नयी परिभाषा वो वीर आज गढ़ चुका था। युगों तक जिसका उदाहरण न मिला ,न मिले ,वो दान निषाद पुत्र ने पलक झपकने से पूर्व प्रस्तुत कर दिया। युवा अवस्था में कदम रख चुके द्रोण पुत्र  अश्वथामा का ह्रदय ग्लानि से भर उठा। पिता का अर्जुन के प्रति विशेष प्रेम उससे कभी छुपा नहीं था। किन्तु आज उसका मन अर्जुन के प्रति भी घृणा से भर उठा। वो स्वयं वीरों की अग्रिम श्रेणी का धनुर्धर बनने की प्रक्रिया से गुजर चुका था। बिना सहयोग ,बिना सुविधा,बिना किसी वरदान के स्वयं अभ्यास की ज्वाला में तपकर आज धनुष विद्या का इतना पारंगत होकर भी एकलव्य ने सहज ही उसके पिता को अपना गुरु बता ,अपना समस्त कौशल ,अपना समस्त नैसर्गिक हुनर उनके चरणो में बिना किसी शंका के, गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर ,अर्पित कर स्वयं विधाता को भी हतप्रद कर दिया। संसार सदा से ही समर्थ का पक्ष लेता रहा है ,लेता रहेगा। एकलव्य जैसे वीरों का ,दानियों का यहाँ कोई मूल्य नहीं। कमजोर सदा से प्रताड़ित हुआ है ,होता रहेगा।
           कथाओं में इससे अधिक एकलव्य का जिक्र नहीं के बराबर है।  कहते हैं बाद में एक दिन अर्जुन अपने साथियों के साथ गुपचुप तरीके से निषादों की बस्ती की तरफ गया। वहां उसने अँधेरे में मात्र हाथ की चार अँगुलियों से एकलव्य को धनुष विद्या का अभ्यास करते देखा। छोटे बालक के धनुष चलाने के समान एकलव्य के बाण कुछ गज से आगे नहीं जा रहे थे। अर्जुन ने व्यंगात्मक हंसी हंसकर एकलव्य का उपहास किया व मन में तृप्ति के भाव लिए लौट आया। एकलव्य की आँखों में आंसू अवश्य थे किन्तु उन आंसुओं के पीछे की ज्वाला अर्जुन को नहीं दिखाई दी।     
                                    विष्णु पुराण व हरिवंश पुराण की कुछ कृतियों में उल्लेख मिलता है कि अपने समय में एकलव्य निषाद वंश का राजा बना जिसने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण किया व यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया। यादवों के हाहाकार से जब कृष्ण का ध्यान सेना के उस हिस्से पर गया तो उन्होंने रथ पर आरूढ़ एक धर्नुरधारी को दाहिने हाथ की मात्र चार अँगुलियों की सहायता से इतनी तीव्रता व सफाई से बाण चलाते देखा कि उन्हें सहसा इस  दृश्य पर विश्वास नहीं हुआ। वो अकेला ही सैकड़ों यादव महारथियों को रोके उनका संहार कर रहा था। पलक  झपकने से पूर्व उसके धनुष से सैकड़ों बाण निकलते थे व अपने लक्ष्य को भेदते थे।कृष्ण यदि जानते न होते कि उनके परम सखा कुन्तीपुत्र अर्जुन इस समय हस्तिनापुर में हैं, तो संभवतः इस योद्धा को अर्जुन मानने की ही भूल कर बैठते। कहते हैं कि युद्ध में एकलव्य भगवान कृष्ण के हाथों वीरगति को प्राप्त हुआ।अतः सहज हीअनुमान लगाया जा सकता है कि  एकलव्य अंगूठा दान करने के पश्चात भी फिर से धनुर्विद्या का पारंगत हुआ। हाँ संभव है कि वो अपने पहले के स्तर  स्पर्श न कर पाया हो ,किन्तु जिस प्रकार जरासंध -यादवों के युद्ध में उसने यादव सेना को अकेला ही संकट में डाल दिया व स्वयं चक्रपाणि कृष्ण को हतप्रभ कर दिया ,वो उसकी जिजीविषा की कहानी स्वयं बखान करता है।
                                      कालान्तर में जब युद्ध के बाद सब अपनी अपनी वीरता का वर्णन सुनाने लगे तो भगवान कहते हैं कि अर्जुन तुम नहीं जानते तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या क्या नहीं किया है।तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इस हेतु द्रोणाचार्य का वध कराया ,महापराकर्मी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारी राह निष्कंठक बने।                
                                       आज भी मध्य प्रदेश -छत्तीसगढ़ में कई भील जातियां हैं जो धनुर्विद्या की पारंगत होकर भी अपने अस्तित्व  की लड़ाई लड़ रही हैं। लेख के प्रति आपकी अमूल्य  टिप्पणी की राह ताकते हुए  शीघ्र  फिर से मुलाक़ात का वचन देते हुए.……… आपका …….ही .........

   ( आपसे प्रार्थना है कि  कृपया लेख में दिखने वाले विज्ञापन पर अवश्य क्लिक करें ,इससे प्राप्त आय मेरे द्वारा धर्मार्थ कार्यों पर ही खर्च होती है। अतः आप भी पुण्य के भागीदार बने   )                                   

6 टिप्‍पणियां:

  1. Panditji, bahut hi sundar...this is one question that has always been on my mind on whether justice was done with eklavya....it is very clear that guru drona did what was politically required from him so that eklavya doesnt become a hurdle for arjuna...however the way you have mentioned how krishna bhagwan mentioned that for his love of arjuna and since arjuna was his main protagonist through whom he had to win the war of dharma...bhagwan krishna ensured that anyone that came in his way whether eklavya or karna was taken out of the way....more so, he even allowed for the sacrifice of arjun's son abhimanyu in chakrvayuh, knowing fully well that he wont be able to come out of it.....

    these events make me wonder...that whether bhagwan ki kripa on an individual, his grace on a person is beyond logic....lord krishna grace and love for arjuna was beynd compare while there were others who appear to be more deserving ....so does that mean that a person's potential, hard work, dedication has no effect on God's grace or kripa....and it is given to someone without a reason...this in my mind somehow feels that it is not necessary that God will always do the right thing....even God for achieving the greater good can sacrifice people along the way who could be more deserving if they find that such people are not helpful for the God to achieve the greater good or goal they have set for themselves.

    Its like Sri Rama could have taken help of Bali who was brave and a good king yet he took help of Sugreev who was a coward and bhagwan rama also used "chal"or trickery to kill Bali....its difficult for me to explain such events by logical conclusion

    Great Article again panditji just like the previous one on Tulsidasji

    Good to see your writings again on this blog

    Thanks
    Amit Jain

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  2. आभार अमित जी ह्रदय से.भविष्य में आगे मौका मिला तो पुरानी कथाओं को नए नजरिये से देखेंगे.वास्तव में इतिहास सदा कथा का एक ही पक्ष उजागर करता है. कथा की सफ़ेद सच्चाई और झूठी एक दृष्टि की कालिमा के बीच एक धुंधलका भी होता है.मैं उसी गोधुली का उपासक हूँ.मेरे लिए शाश्त्रों में वर्णित नायक भी खलनायक हो सकता है व खलनायक भी नायक हो सकता है.परंपरागत परिपाटी से हटकर कथाओं के दूसरे पहलुओं पर सदा ही मेरा ध्यान आकर्षित होता रहा है ,जिस कारण कई बार कोप का भाजन भी बनना पड़ता है.आप लोगों का आशीर्वाद ही ऐसे विषयों पर कलम घिसने का हौसला देता है.नमस्ते

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  3. शिष्य होने की नयी परिभाषा वो वीर आज गढ़ चुका था। युगों तक जिसका उदाहरण न मिला ,न मिले ,वो दान निषाद पुत्र ने पलक झपकने से पूर्व प्रस्तुत कर दिया। बहुत अच्छे ढंग से एकलव्य जी के चरित्र का आपने चित्रण किया है.वह तारीफ़ के काबिल है.

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