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लेख को आरम्भ करने से पूर्व बता देना चाहता हूँ की हम आज वक्री ग्रहों के बारे में बात करेंगे,न की बक्री.वक्री का सामान्य अर्थ उल्टा होता है व बक्री का अर्थ टेढ़ा..साधारण दृष्टि से देखें या कहें तो सूर्य,बुध आदि ग्रह धरती से कोसों दूर हैं.भ्रमणचक्र में अपने परिभ्रमण की प्रक्रिया में भ्रमणचक्र के अंडाकार होने से कभी ये ग्रह धरती से बहुत दूर चले जाते हैं तो कभी नजदीक आ जाते हैं.जब जब ग्रह पृथ्वी के अधिक निकट आ जाता है तो पृथ्वी की गति अधिक होने से वह ग्रह उलटी दिशा की और जाता महसूस होता है.उदाहरण के लिए मान लीजिये की आप एक तेज रफ़्तार कार में बैठे हैं,व आपके बगल में आप ही की जाने की दिशा में कोई साईकल से जा रहा है तो जैसे ही आप उस साईकल सवार से आगे निकलेंगे तो आपको वह यूँ दिखाई देगा मानो वो आपसे विपरीत दिशा में जा रहा है.जबकि वास्तव में वह भी आपकी दिशा की और ही जा रहा होता है.आपकी गति अधिक होने से एक दूसरे को क्रोस करने के समय आगे आने के बावजूद वह आपको पीछे यानि की उल्टा जाता दिखाई देता है. और जाहिर रूप से आप इस प्रभाव को उसी गाडी सवार ,या साईकिल सवार के साथ महसूस कर पाते है जो आपके नजदीक होता है,दूर के किसी वाहन के साथ आप इस क्रिया को महसूस नहीं कर सकते. ज्योतिष की भाषा में इसे कहा जायेगा की साईकिल सवार आपसे वक्री हो रहा है.यही ग्रहों का पृथ्वी से वक्री होना कहलाता है.सीधे अर्थों में समझें की वक्री ग्रह पृथ्वी से अधिक निकट हो जाता है.
अब निकट होने से क्या होता होगा भला?यही होता है की ग्रह का असर ,ग्रह का प्रभाव बढ जाता है. कई ज्योतिषियों का इस विषय पर अलग अलग मत है.कहा यह भी जाता है की वक्री होने से ग्रह उल्टा असर देने लगता है.आप जलती हुई भट्टी से दूर बैठे हैं,जैसे ही आप भट्टी के निकट जाते हैं तो आपको अधिक गर्मी लगने लगती है.क्यों?क्योंकि आपके और भट्टी के बीच की दूरी कम हो गयी है.भट्टी में तो आग तब भी उतनी ही थी जब आप उससे दूर थे,व अब भी उतनी ही है जब आप उसके नजदीक हैं.आग में कोई भी फर्क नहीं आया है बस नजदीक होने से हमें उसका प्रभाव अब प्रबलता से महसूस हो रहा है. एक अन्य उदाहरण लीजिये, आप किसी पंखे से दूर बैठे हैं जहाँ पंखे की बहुत कम हवा आप तक आ रही है,आप अपनी कुर्सी उठा कर पंखे के निकट आ जाते हैं,अब आप पंखे की हवा को अधिक जोर से महसूस कर रहे हैं.जबकि पंखा अब भी उसी स्पीड पर चल रहा है जिस पर पहले चल रहा था.प्रभाव में अंतर दूरी घटने से हुआ है,अवस्था में कोई फर्क नहीं आया है.इसी प्रकार यह मानना की वक्री होने से ग्रह अपना उल्टा असर देने लगेगा यह मान लेना है की भट्टी के निकट जाने से वह ठंडी हवा देने लगेगी,या निकट आने पर पंखा आग उगलने लगेगा.
ग्रह के वक्री होने से उसके नैसर्गिक गुण में ,उसके व्यवहार में किसी प्रकार का कोई अंतर नहीं आता अपितु उसके प्रभाव में ,उसकी शक्ति में प्रबलता आ जाती है.देव गुरु ब्रह्स्पत्ति जिस कुंडली में वक्री हो जाते हैं वह जातक अधिक बोलने लगता है,लोगों को बिन मांगे सलाह देने लगता है.गुरु ज्ञान का कारक है,ज्ञान का ग्रह जब वक्री हो जाता है तो जातक अपनी आयु के अन्य जातकों से आगे भागने लगता है,हर समय उसका दिमाग नयी नयी बातों की और जाता है.सीधी भाषा में कहूँ तो ऐसा जातक अपनी उम्र से पहले बड़ा हो जाता है,वह उन बातों ,उन विषयों को आज जानने का प्रयास करने लगता है,सामान्य रूप से जिन्हें उसे दो साल बाद जानना चाहिए.समझ लीजिये की एक टेलीविजन चलाने के किये उसे घर के सामान्य वाट के बदले सीधे हाई टेंसन से तार मिल जाती है.परिणाम क्या होगा?यही होगा की अधिक पावर मिलने से टेलीविजन फुंक जाएगा.इसी प्रकार गुरु का वक्री होना जातक को बार बार अपने ज्ञान का प्रदर्शन करने को उकसाता है.जानकारी ना होने के बावजूद वह हर विषय से छेड़ छाड़ करने की कोशिश करता है.अपने ऊपर उसे आवश्यकता से अधिक विश्वास होने लगता है जिस कारण वह ओवर कोंनफीडेंट अर्थात अति आत्म विश्वास का शिकार होकर पीछे रह जाता है.आपने कई जातक ऐसे देखे होंगे की जो हर जगह अपनी बात को ऊपर रखने का प्रयास करते हैं,जिन्हें अपने ज्ञान पर औरों से अधिक भरोसा होता है,जो हर बात में सदा आगे रहने का प्रयास करते हैं,ऐसे जातक वक्री गुरु से प्रभावित होते हैं.जिस आयु में गुरु का जितना प्रभाव उन्हें चाहिए वो उससे अधिक प्रभाव मिलने के कारण स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते.
कई बार आपने बहुत छोटी आयु में बालक बालिकाओं को चरित्र से से भटकते हुए देखा होगा.विपरीत लिंगी की ओर उनका आकर्षण एक निश्चित आयु से पहले ही होने लगता है.कभी कारण सोचा है आपने इस बात का ?विपरीत लिंग की और आकर्षण एक सामान्य प्रक्रिया है,शरीर में होने वाले हार्मोनल परिवर्तन के बाद एक निश्चित आयु के बाद यह आकर्षण होने लगना सामान्य सी कुदरती अवस्था है.शरीर में मंगल व शुक्र रक्त,हारमोंस,सेक्स ,व आकर्षण को नियंत्रित करने वाले कहे गए हैं.इन दोनों में से किसी भी ग्रह का वक्री होना इस प्रभाव को आवश्यकता से अधिक बढ़ा देता है. यही प्रभाव जाने अनजाने उन्हें उम्र से पहले वो शारीरिक बदलाव महसूस करने को मजबूर कर देता है जो सामान्य रूप से उन्हें काफी देर बाद करना चाहिए था.
शनि महाराज हर कार्य में अपने स्वभाव के अनुसार परिणाम को देर से देने,रोक देने ,या कहें सुस्त रफ़्तार में बदल देने को मशहूर हैं.कभी आपने किसी ऐसे बच्चे को देखा है जो अपने आयु वर्ग के बच्चों से अधिक सुस्त है,जा जिस को आप हर बात में आलस करते पाते हैं.खेलने में ,शैतानियाँ करने में,धमाचौकड़ी मचाने में जिस का मन नहीं लग रहा. उसके सामान्य रिफ़लेकसन कहीं कमजोर तो नहीं हैं . जरा उस की कुंडली का अवलोकन कीजिये,कहीं उसके लग्न में शनि देव जी वक्री होकर तो विराजमान नहीं हैं.
इसी प्रकार वक्री ग्रह कुंडली में आपने भाव व अपने नैसर्गिक स्वभाव के अनुसार अलग अलग परिणाम देते हैं.अततः कुंडली की विवेचना करते समय ग्रहों की वक्रता का ध्यान देना अति आवश्यक है.अन्यथा जिस ग्रह को अनुकूल मान कर आप समस्या में नजरंदाज कर रहे हो होते हैं ,वही समस्या का वास्तविक कारण होता है,व आप उपाय दूसरे ग्रह का कर रहे होते हैं.परिणामस्वरूप समस्या का सही समाधान नहीं हो पाता.
लेख के अंत में फिर बता दूं की वक्री होने से ग्रह के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता,बस उसकी शक्ति बढ़ जाती है.अब कुंडली के किस भाव को ग्रह की कितनी शक्ति की आवश्यकता थी व वास्तव में वह कितनी तीव्रता से उस भाव को प्रभावित कर रहा है,इस से परिणामो में अंतर आ जाता है व कुंडली का रूप व दिशा ही बदल जाती है.