पूत सपूत तो क्यों धन संचय ,पूत कुपूत तो क्यों धन संचय? पुराने लोगों के मुहं से अपने भी ये कहावत कई बार सुनी होगी.यहाँ जाने अनजाने सरस्वती की महत्ता को ही बताया गया है.किन्तु वर्तमान समय प्रतिकूल है.पूत सुपूत है तो भी धन संचय,और पूत कुपूत है तब तो जरूर धन संचय.
धन अर्थात लक्ष्मी जी का बड़ा बोल बाला है भैया.पूत सुपूत निकला तो कल डॉक्टर,इंजिनियर ,वकील बनाने के लिए किसी बड़े कॉलेज में दाखिला दिलाना होगा,जरुरत धन की पड़ेगी.औलाद निकम्मी निकली तो कल पता नही कितनी दफा जमानत आदि देनी पड़े,उसके लिए काम धंधा जोड़ना पड़े? जो कुपूत खुद के लिए कुछ नहीं कर सकता वो बूड़े माता -पिता के लिए तो भला क्या करेगा?खुद को पालने के लिए भी धन ही चाहिए. जरूरत फिर से धन की ही पड़ने वाली है. अर्थात बिना लक्ष्मी जी की शरण में जाए गुजरा नही होगा प्रभु.
ज्योतिषीय दृष्टी से कहने का प्रयास करें स्थिर संपत्ति ही भविष्य की आस बनती दिखाई देती है.किन्तु यहाँ विडम्बना ये है की शाश्त्रों में तो लक्ष्मी जी को सदा चलायमान कहा गया है,फिर भला ये स्थिर होकर शुभ फल कैसे दे सकती हैं. अचल संपत्ति अर्थात कुंडली के स्थिर भावों को देखने का प्रयास करें .स्थिर भाव लग्न से गिनते हुए चार मिलते हैं.धन भाव ,पंचम भाव,अष्ठम भाव,व आय भाव.
पंचम भाव जैसा की जग जाहिर है,मुख्य रूप से विद्या का भाव है.कभी आपने ध्यान दिया की पंचम भावाधिपति और आएश में सदा नैसर्गिक शत्रुता होती है.अर्थात सामान्य रूप से सदा ये एक दुसरे के विरोधाभासी होते हैं.अततः यदि आप शिक्षा का अर्थ धन प्राप्त करना ही मानते हैं तो शायद आप
गच्चा खा सकते हैं.पंचमेश आएश का सहायक नहीं होगा.वहीँ दूसरी ओर इन के कारक आपस में सहायक होते हैं.यदि पंचम में अग्नि प्रधान राशि होती है तो एकादस में वायु कारक राशि होगी.एकादस में जलीय राशि होगी तो पंचम में पृथ्वी कारक राशि होगी.इस प्रकार ये भाव के रूप में एक दूजे के सहायक हो सकते हैं..
इन में सम्बन्ध भी क्षत्रिय-शुद्र,व वैश्य-ब्रह्मिन के रूप ही होता है. अर्थात सर्वथा विपरीत.
अष्ठम भाव गुप्त धन का भी माना गया है.अब ध्यान दें की द्वितीय व अष्ठम भावाधिपति सदा शत्रु होते हैं.संकेत यह मिलता है की यदि आप पैत्रिक धन सम्पदा में से कुछ भी गुप्त रूप से अपने लिए निकलने की लालसा रखते हैं तो सचेत रहें.ऐसा धन आपको शुभ फलदायक नहीं हो सकता.खेतों में मिलने वाला दबा हुआ धन ,दीवारों में छिपाया गया धन ,सब इसी प्रकार का धन होता है जो अपनों से दगा करके रखा जाता है,और अंत में स्वयं के भी काम नहीं आता.अन्य लोग उसका लाभ उठाते हैं.
तो क्या धन के रूप में मनुष्य को चल संपत्ति की लालसा रखनी चाहिए?कुंडली में चर भावों की बात करें (मेरा अर्थ राशि से नहीं भाव से है) तो चारों केंद्र चर होते हैं. इनमे सुखेश व दसमेश के कभी भी मित्रता नहीं होती.अब आप अपने कार्य छेत्र के द्वारा अपने लिए वास्तविक सुख पा लेंगे इसमें संशय है मुझे.
सप्तम भाव विवाह व साझेदारी का भाव है.बड़ी रोचक बात है की सप्तमेश व नवमेश भी कभी नैसर्गिक मित्र नहीं होते,अब भला क्या हो?जरा गौर करें,पचम त्रिकोण व नवं त्रिकोण के स्वामी सदा मित्र होते हैं.पंचम भाव नवम भाग्य भाव से नवम यानि भाग्य है.अर्थात यदि सरस्वती की उपासना की जाय तो भाग्य का साथ स्वयमेव मिलता है. सरस्वती की उपासना का अर्थ विधि पूर्वक व धर्मपूर्वक शास्त्रसम्मत आचरण करना,गुरुओं का सम्मान ,वाणी पर नियंत्रण,आचरण की शुद्धता आदि से है.
इसी प्रकार पराक्रम भाव व इसके बिलकुल सामने पड़ने वाला आय भाव सदा मित्र राशि होते हैं. अततः यदि आप पराक्रम करते हैं तो आय स्वयम ही होने लगती है.आय भाव स्वयम पराक्रम से नवम अर्थात भाग्य होता है.तथा पराक्रम सप्तम भाव से नवं भाव है.अब इस त्रिकोण में आपका जीवन साथी भी सम्मलित हो जाता है.तभी यह त्रिकोण पूरा होता है.जिनके घर की लक्ष्मी खुश उनकी धन लक्ष्मी मेहरबान.नवम भाव धर्म का भाव है.तात्पर्य यह की शिक्षा को धर्म मानकर ग्रहण करें,व आय प्राप्ति के लिए भी धर्मपूर्वक आचरण कर पराक्रम करें ,ग्रहों में कितनी भी प्रतिकूलता हो,सब अपने आप व्यवस्थित होने लगेगा. लक्ष्मी स्वयं उनके द्वार पर दस्तक देती है जहाँ सरस्वती की उपासना होती है.जो लोग पराक्रम को धर्म मानते है ,उनका भाग्य उनका दामन सदा भरता है.
सप्तम भाव विवाह व साझेदारी का भाव है.बड़ी रोचक बात है की सप्तमेश व नवमेश भी कभी नैसर्गिक मित्र नहीं होते,अब भला क्या हो?जरा गौर करें,पचम त्रिकोण व नवं त्रिकोण के स्वामी सदा मित्र होते हैं.पंचम भाव नवम भाग्य भाव से नवम यानि भाग्य है.अर्थात यदि सरस्वती की उपासना की जाय तो भाग्य का साथ स्वयमेव मिलता है. सरस्वती की उपासना का अर्थ विधि पूर्वक व धर्मपूर्वक शास्त्रसम्मत आचरण करना,गुरुओं का सम्मान ,वाणी पर नियंत्रण,आचरण की शुद्धता आदि से है.
इसी प्रकार पराक्रम भाव व इसके बिलकुल सामने पड़ने वाला आय भाव सदा मित्र राशि होते हैं. अततः यदि आप पराक्रम करते हैं तो आय स्वयम ही होने लगती है.आय भाव स्वयम पराक्रम से नवम अर्थात भाग्य होता है.तथा पराक्रम सप्तम भाव से नवं भाव है.अब इस त्रिकोण में आपका जीवन साथी भी सम्मलित हो जाता है.तभी यह त्रिकोण पूरा होता है.जिनके घर की लक्ष्मी खुश उनकी धन लक्ष्मी मेहरबान.नवम भाव धर्म का भाव है.तात्पर्य यह की शिक्षा को धर्म मानकर ग्रहण करें,व आय प्राप्ति के लिए भी धर्मपूर्वक आचरण कर पराक्रम करें ,ग्रहों में कितनी भी प्रतिकूलता हो,सब अपने आप व्यवस्थित होने लगेगा. लक्ष्मी स्वयं उनके द्वार पर दस्तक देती है जहाँ सरस्वती की उपासना होती है.जो लोग पराक्रम को धर्म मानते है ,उनका भाग्य उनका दामन सदा भरता है.